________________
२७४
सांस्कृतिक संदर्भ
में व्यक्ति 'स्व' से आगे बढ़कर इतना अधिक सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी नहीं रह जाता । योग-साधना की यही चरम परिणति है।
संक्षेप में महावीर की इस विचारधारा का अर्थ है कि हम अपने जीवन को इतना संयमित और तपोमय वनायें कि दूसरों का लेशमात्र भी शोपण न हो, साथ ही स्वयं में हम इतनी शक्ति, पुरुपार्थ और क्षमता भी अजित कर लें कि दूसरा हमारा शोपण न कर सके।
जीवन-व्रत-साधना :
प्रश्न है ऐसे जीवन को कैसे जीया जाए ? जीवन में शील और शक्ति का यह संगम कैसे हो? इसके लिए महावीर ने "जीवन-व्रत-साधना" का प्रारूप प्रस्तुत किया। साधनाजीवन को दो वर्गों में बांटते हुए उन्होंने वारह व्रत बतलाये । प्रथम वर्ग, जो पूर्णतया इन व्रतों की साधना करता है, वह श्रमण है, मुनि है, संत है, और दूसरा वर्ग, जो अंशतः इन व्रतों को अपनाता है, वह श्रावक है, गृहस्थ है, संसारी है ।
इन बारह व्रतों की तीन श्रेणियां हैं : पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत । अणुव्रतों में श्रावक स्यूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का त्याग करता है । व्यक्ति तथा ममाज के जीवन-यापन के लिए वह आवश्यक सूक्ष्म हिंसा का त्याग नहीं करता । जवकि श्रमण इसका भी त्याग करता है, पर उसे भी यथाशक्ति सीमित करने का प्रयत्न करता है। इन व्रतों में समाजवादी समाज-रचना के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।
प्रथम अणुव्रत में निरपराध प्राणी को मारना निपिद्ध है, किन्तु अपराधी को दण्ड देने की छूट है । दूसरे अणुव्रत में धन, सम्पत्ति, परिवार आदि के विपय में दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलना निपिद्ध है। तीसरे व्रत में व्यवहार शुद्धि पर बल दिया गया है । व्यापार करते समय अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना, दूध में पानी आदि मिला देना, झूठा नाप, तोल तथा राज-व्यवस्था के विरुद्ध आचरण करना निपिद्ध है । इस व्रत में चोरी करना तो वर्जित है ही किन्तु चोर को किसी प्रकार की सहायता देना या चुरायी हुई वस्तु को खरीदना भी वर्जित है । चौथा व्रत स्वदार-सन्तोष है जो एक ओर काम-भावना पर नियमन है तो दूसरी और पारिवारिक संगठन का अनिवार्य तत्त्व है । पांचवें अगवत में श्रावक स्वेच्छापूर्वक धन-सम्पत्ति, नौकर-चाकर आदि की मर्यादा करता है ।
तीन गुणवतों में प्रवृत्ति के क्षेत्र को सीमित करने पर बल दिया गया है । शोषण को हिंसात्मक प्रवृत्तियों के क्षेत्र को मर्यादित एवं उत्तरोत्तर संकुचित करते जाना ही इन गुणवतों का उद्देश्य है । छठा व्रत इसी का विधान करता है । सातवें व्रत में योग्य वस्तुओं के उपभोग को सीमित करने का आदेश है। आठवें में अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक प्रवृत्तियों को रोकने का विधान है।