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. वर्तमान में भगवान् महावीर के तत्त्व-चिन्तन की सार्थकता
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. आवश्यकता से अधिक संग्रह : सामाजिक अपराध :: . ... . ..
___ महावीर ने अपने राजसी जीवन में और उसके चारों ओर जो अनन्त वैभव रंगीनी देखी, उससे यह अनुभव किया कि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना पाप है, सामाजिक अपराध है, आत्मा को छलना है । आनन्द का रास्ता है अपनी इच्छाओं को कम करना,. आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना, क्योंकि हमारे पास जो अनावश्यक संग्रह है,....उसकी उपयोगिता कहीं और है । कहीं ऐसा प्राणिवर्ग है जो उस सामग्री से वंचित है, जो उसके अभाव में संतप्त है, आकुल है, अतः हमें उस अनावश्यक सामग्री को संगृहीत कर रखना उचित नहीं। यह अपने प्रति ही नहीं, समाज के प्रति छलना है, धोखा है, अपराध है, इस विचार को अपरिग्रह-दर्शन कहा गया, जिसका मूल मन्तव्य है-किसी के प्रति ममत्व-भाव न रखना । वस्तु के प्रति भी नहीं, व्यक्ति के प्रति भी नहीं, स्वयं अपने प्रति भी नहीं। . amamishwinindmarini .. ममत्व भाव न हो:.:..:. . . . . . . . . . . . . . . . . .
वस्तु के प्रति ममता न होने पर हम अनावश्यक सामग्री का तो संचय करेंगे ही नहीं, आवश्यक सामग्री को भी दूसरों के लिए विसजित करेंगे। आज के संकट काल में जो संग्रह-वृत्ति (होडिंग हेविट्स) और तज्जनित व्यावसायिक लाभ-वृत्ति पनपी है, उससे मुक्त हम तब तक नहीं हो सकते जब तक कि अपरिग्रह-दर्शन के इस पहलू को हम आत्मसात् न कर लें।
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व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो, इसका दार्शनिक पहलू इतना ही है कि व्यक्ति अपने स्वप्नों तक ही न सोचे, परिवार के सदस्यों के हितों की ही रक्षा न करे, वरन् उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर अग्रसर हो । आज प्रशासन और अन्य क्षेत्रों में जो अनैतिकता व्यवहृत है उसके मूल में "अपनों के प्रति ममता" का भाव ही विशेष रूप से प्रेरक कारण है। इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व से मुक्त हो जाय । इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना ही है कि व्यक्ति 'स्व' के दायरे से निकलकर 'पर' तक पहुंचे । स्वार्थ की संकीर्ण सोमा को लांघ करें परार्थ के विस्तृत क्षेत्र में आये । सन्तों के जीवन की यही साधना है। महापुरुप इसी जीवन-पद्धति पर आगे बढ़ते हैं। क्या महावीर, क्या बुद्ध सभी इस व्यामोह से परे हटकर आत्मजयी बनें । जो जिस अनुपात में इस अनासक्त भाव को आत्मसात् कर सकता है वह उसी अनुपात में लोक-संम्मान का अधिकारी होता है । अाज के तथाकथित नेताओं के व्यक्तित्व का विश्लेषण इस कसौटी पर किया जा सकता है । नेताओं के सम्बन्ध में आज जो दृष्टि बदली है और उस शब्द के अर्थ का जो अपकर्ष हुआ हैं उसके पीछे यही लोक दृष्टिं सक्रिय है।
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- "अपने प्रति भी ममता न हो"यह अपरिग्रह-दर्शन का चरम लक्ष्य है.। श्रमणसंस्कृति में इसीलिए शारीरिक कष्ट-सहन को एक ओर अधिक महत्व दिया है तो दूसरी योर इस पार्थिव देह-विसर्जन (सल्लेखना) का विधान किया गया है। वैदिक संस्कृति में जो समाधि-अवस्था, या संतमत में जो सहजावस्था है, वह इसी कोटि की है। इस अवस्था