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मनोवैज्ञानिक संदर्भ
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चिंता के कारण । जहां हम खाली हुए नहीं कि तरह-तरह के विचार, भावनाएं, ऊल-जलूल कल्पनाएं हमारे मस्तिष्क को विकृत करने लगती हैं। अनहोनी चिंताएं निरर्थक विकल्प, संभाव्य घटनाओं से मन भरने लगता है, स्नावयिक उत्तेजना बढ़ जाती है, जीवन निस्सार और निष्फल लगने लगता है । उकताहट, व्याकुलता, निराशा और पराजय की भावना निठल्ले मनुष्य को आ दवोचती है । ये उसे कहीं का नहीं रहने देती, स्वास्थ्य चौपट, चिंताग्रस्त मुझीया चेहरा, बुझा मन, न उत्साह और न प्रफुल्लता। ऐसे व्यक्ति के लिए जीवन भार हो जाता है, जीना दुश्वार हो जाता है । मरते वनता नहीं, जीना आता नहीं। कार्य-निमग्नता सुखी जीवन की शर्त :
फिर किया क्या जाए ? आदमी को स्वस्थ भी रहना है, सुखी और प्रसन्न भी। हमेशा खीझ भरे, झुंझलानेवाले और उकताहट भरा कटु जीवन जीने वाले लोग ही रहें तो यह दुनिया रहने योग्य कहां रह जाएगी ? अतः एक ही साधन है और वही साध्य भी है, 'यादमी को व्यस्त रहना चाहिए ।' अंग्रेज कवि टेनिसन कहता है : 'मुझे कार्य में निमग्न रहना चाहिए, नहीं तो मैं नैराश्य में टूट जाऊंगा । यही 'वात स्नायुरोग चिकत्सक कहते हैं । उनका कहना है कि स्नायुरोगों का हेतु गिरानों का ह्रास होना नहीं, अपित निस्सारता, निष्फलता, निराशा, चिन्ता और व्याकुलता आदि के मनोविकार हैं। चिंता, भय, घृणा, ईयां तथा स्पर्धा के ये मनोभाव इतने प्रवल होते हैं कि ये मस्तिष्क से अन्य मभी शांत एवं सुखद विचारों तथा मनोभावों को निकाल बाहर कर देते हैं । अतः मनुष्य का कर्तव्य (धर्म) है व्यस्त रहना, सुखी जीवन के लिए कार्य निमग्न रहना। परोपकारी को व्यस्तता अपनायें :
___इस सन्दर्भ में संसार के महापुरुषों, धर्म-संस्थापकों, तीर्थकरों ने मनुष्य की सर्वाधिक सहायता की है । यह दूसरी बात है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण अपने इन मुक्तिदातामों की ही उपेक्षा करने लगे, उनकी पूजा-उपासना का दिखावा तो करता रहे परन्तु उनके वास्तविक उपदेशों को तिलांजलि दे दे। मनुष्य के इसी स्वार्थ ने बार-बार उसे दुःख में घसीटा है, चिंता में डुबोया है, निराशा ग्रस्त किया है । दुनिया में आनेवालों में से अधिसंख्यक जीवनभर रोते ही रहते हैं, रोते ही चले जाते हैं । सुखी जीवन के लिए
आवश्यक है कि हम अपना दृष्टिकोण बदलें। निठल्ले रहने की अपेक्षा परोपकारी की व्यस्तता को अपनायें । इस व्यस्तता के लिए हमें अनिवार्य रूप से धार्मिक होना पड़ेगा, आध्यात्मवादी बनना पड़ेगा, अपने 'स्व' से निकलकर 'पर' की चिंता भी करनी होगी, स्वार्थ को छोड़ परमार्थ को पकड़ना होगा, संकुचितता और संकीर्णता को भुला कर विशाल हृदयता की गरिमा को समझना होगा । विश्व के सभी धर्मो ने परार्थ सेवा को ही अत्यधिक महत्व दिया है। जनसेवा की भावना :
तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदेशित धर्म का तो मूलाधार ही जन सेवा की भावना है। इस सन्दर्भ में मुझे भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसंग बार-बार याद आ जाता है। एक बार उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) गौतम ने उनसे प्रश्न किया, भगवन ! दो