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अवकाश के क्षणों के उपयोग की समस्या और महावीर
व्यक्ति हैं । एक रात दिन आपकी भक्ति में लगा रहता है, अतः जन-सेवा के लिए समय नहीं निकाल पाता । दूसरा सदा ही जन-सेवा में लगा रहता है, अतः आपकी भक्ति नहीं कर पाता । प्रभु इन दोनों में कौन धन्य है ? कौन अधिक पुण्य का भागी है ?
महावीर ने विना एक क्षण के भी विलम्ब के उत्तर दिया--'वह, जो जन-सेवा में लगा रहता है, धन्य है, पुण्यवान है ।'
गौतम ने कहा-'प्रभु ! यह कैसे ? क्या आपकी भक्ति.....।'
गौतम ! मेरी भक्ति, मेरा नाम रटने में या मेरी पूजा अर्चना करने में नहीं, मेरी वास्तविक भक्ति मेरी आज्ञा पालन में है । मेरी आज्ञा है प्राणी मात्र को सुख-सुविधा व शांति पहुंचाना, उनके कष्टों का परिहार करना। समय का सदुपयोग :
इस प्रकार महावीर के दृष्टिकोण से सच्चा धार्मिक वह है जो प्राणी सेवा में लगा रहता है । प्राणी मात्र की सेवा जिसका धर्म है, उसको अवकाश कहां ? यह दुनिया सदा ही अनेक दीनों, दुःखियों, पीड़ितों, अपंगों, भयाक्रान्तों से भरी पड़ी है । जिसने पीड़ित मानवता की पुकार को सुनना सीख लिया, उसे जीवन में अवकाश कहां ? उसके चारों ओर अनवरत काम की ऐसी लम्वी शृखला है, जिसे कभी पूरा होना नहीं और जिसको करने में सदा ही एक स्वर्गिक आनन्द है, दिव्य सन्तोप है, एक धुन है, एक लगन है जो जीना ही सार्थक कर जाती है।
____ महावीर ने धर्म का स्वरूप बताया है-अहिंसा, संयम और तप । अहिंसा और संयम भावनापरक अधिक हैं परन्तु तप में क्रिया प्रमुख है। तप अर्थात् परसेवा, स्वाध्याय, आत्मचिंतन । हम तप को ही पकड़लें तो हमारे 'खाली समय' की समस्या का निराकरण हो जाएगा।
पर-सेवा जिसका लक्ष्य हो, स्वाध्याय और आत्मचिंतन जिसका व्यसन वन गया हो, उसके पास खाली समय रहता ही कहां है ? व्यक्तियों को चाहिए कि वे व्यस्त रहने के इस जीवन दर्शन को समझें और इसे व्यवहार में उतारें। जीविकोपार्जन के धन्चे से बचे अपने अमूल्य क्षणों का उपयोग दूसरों के हितार्थ काम करने, सत्-साहित्य का स्वाध्याय करने, आत्मचिन्तन करने आदि में लगाएं । यदि हमारा अवकाश का समय किसी दुःखी के आंसू पौंछने में, किसी संतप्त हृदय को सान्तवना देने में, किसी वेसहारा को सहारा प्रदान करने में तथा अच्छे विचारों के अध्ययन मनन व चिन्तन तथा ध्यान साधना में लग सके तो इससे अच्छा समय का सदुपयोग और क्या होगा ?