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भगवान् महावीर : जीवन, व्यक्तित्व और विचार
इसी प्रकार एक की अल्प हिंसा भी अधिक फल देती है और एक की बड़ी हिंसा भी थोड़ा फल देती है । इसीलिये हिंसा और अहिंसा का घनिष्ट सम्बन्ध बाह्य की अपेक्षा मन और आत्मा से अधिक निकट है । वास्तव में ग्रहिंसा के सम्वन्ध में महावीर का विचार बहुत ही सूक्ष्म एवं गहरा है । आत्मा के परिणामों को हनन होने से महावीर के कथनानुसार ग्रसत्य, व्यभिचार यादि सभी हिंसा ही हैं। केवल शिष्यों को समझाने के लिये वे अलग-अलग बतलाये गये हैं
ग्रात्म-परिणाम-हिंसन-हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् ॥ श्रनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥
वस्तुतः कपाय के प्रवेश से द्रव्य एवं भाव प्राणों का अपहरण ही हिंसा है । कलुषित परिणाम के प्रभाव में किसी के प्रारणों का अपहरण होने पर भी वह अहिंसक ही है कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हिंसक एक ही है, फल भोगने वाले अनेक होते हैं । कभी हिंसक अनेक हैं, फल भोगने वाला एक ही है ।
परिग्रह का सिद्धान्त भी पूर्ववत् मानसिक ग्रासक्ति और विरक्ति पर ही श्राधारित है । एक नंगा भिखारी भी महापरिग्रही हो सकता है, एक सम्राट् भी अल्प परिग्रही । स्त्रीपुत्र, धन-धान्य, नौकर-चाकर यादियों में ये मेरे हैं इस प्रकार की ममत्व बुद्धि का नाम ही परिग्रह है । इस मोह को कम करके परिग्रहों में एक भित्ति वांधना ही परिमित परिग्रह है । लोक में धन-दौलत, व्यापार-व्यवहार, मिल-कारखाना ये सभी परिग्रह कहलाते हैं । किन्तु वास्तव में उन पर का व्यामोह ही परिग्रह है । इसलिये मन में किसी भी प्रकार की आशा न रखकर, बाहर के परिग्रहों को त्यागना ही वस्तुतः अपरिग्रह है । क्योंकि परिग्रहों को जुटाती है केवल आशा । संग्रह की आशा बढ़ाने पर मनुष्य न्याय-अन्याय, युक्त-प्रयुक्त की बात ही नहीं सोचता है |
उस समय वह धनपिशाची होकर धन का दास बन जाता है । परिग्रह की मर्यादा से मनुप्य के पास अनावश्यक धन का संग्रह नहीं होता है । अपने पास श्रावश्यक धन होने से जीवन-निर्वाह में उसे कष्ट भी नहीं होता । इतना ही नहीं, वह मनुष्य अनावश्यक चितात्रों से मुक्त होकर शांति से अपना जीवन वितायेगा । क्योंकि परिग्रह जितना बढ़ेगा उतनी ही अशांति भी बढ़ेगी । यह अनुभव की बात है । आजकल विश्व में दिखायी देने वाली आर्थिक विषमता का एक मात्र कारण मनुष्य की अनावश्यक संचय प्रवृत्ति एवं लोभ है । यदि मनुष्य सिर्फ अपने आवश्यक मात्र की वस्तुओं को संग्रह कर अनावश्यक वस्तुओं को दूसरे के उपयोग के लिये छोड़ दे तो विश्व का प्रभाव एवं अशांति अवश्य दूर हो जायेगी । ऐसी परिस्थिति में समता - विषमता का प्रश्न ही हमारे सामने नहीं उठता । सरकार को नये-नये कानून बनाने की जरूरत भी नहीं पड़ती ।
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श्राशागर्तः प्रतिप्राणियास्मिन् विश्वमरणूपमम् ॥
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कस्य किं कियदायाति वृथा नौ विपयैषिता ॥
भगवान् महावीर का अनेकांतवाद या स्यादुवाद निम्न प्रकार है :