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________________ जीवन, व्यक्तित्व और विचार किया गया । इसी से तव से भारत में दीपावली का त्यौहार प्रारम्भ हुना माना जाता है। वीर सम्वत् भारत का सर्व प्राचीन सम्वन् माना जाता है। भगवान महावीर ने किसी नवीन धर्म का प्रवर्तन नहीं किया, बल्कि पूर्ववर्ती २३ तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित धर्म को ही पुनर्जीवित करके उसे सशक्त और युगानुकूल बनाया । महावीर के विचार और सिद्धान्त में अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त या स्याद्वाद प्रमुख हैं। सभी प्रकार के विकारों को जीत लेने के कारण महावीर जिन कहलाये और उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म जैन धर्म कहलाया। भगवान् महावीर ने कहा कि प्रत्येक जीवात्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। इसके लिये दूसरे किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं है । इस विपय में हर एक यात्मा स्वतंत्र है । जीवात्मा अनादि से कर्मवद्ध होने के कारण अशुद्ध है। काम, क्रोध आदि विकारों के कारण उसके स्वाभाविक गुण प्रकट नहीं हो पाते हैं । परमात्मा इन विकारों को नष्ट कर अपने स्वाभाविक गुणों को पा लेने से परिशुद्ध हो जाता है। वीतरागी या निर्विकारी होने से परमात्मा का उपदेश अत्यंत प्रामाणिक होता है। जिनमें राग-द्वेपादि विकार मौजूद हैं उनका उपदेश प्रामाणिक नहीं हो सकता। वे काल, देश, व्यक्ति या श्रोता को लक्ष्य करके अन्यथा भी उपदेश दे सकते हैं । इसलिये जो जीवात्मा सब प्रकार से निर्विकार या निपी, प्रामाणिक एवं पूर्ण ज्ञानी हो जाता है वही परमात्मा, परमेश्वर, परमेष्ठी, परम ज्योति आदि नामों से संबोधित करने योग्य है। जीवात्मा एक ही भव' या जन्म में परमात्मा नहीं बन सकता। उत्तरोत्तर प्रात्मविकास को प्राप्त करके ही वह शुद्ध परमात्मा बन सकता है । सभी मुक्तात्मा इसी नियम से अनेक जन्मों में अपनी आत्मा को विकसित करते हुए अंतिम भव में मुक्त हुए हैं। अपने को सुधारना अपने ही हाथ में है । अपने सुख या दुःख का दाता स्वयं आत्मा है। निजाजितं कर्म विहाय देहिनः । न कोऽपि कस्यापि ददाति किन्चन ।। स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा । फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।। परेण दत्त यदि लभ्यते स्फुटं । स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं भवेत् ।। अव भगवान महावीर के अहिंसा आदि प्रधान तत्त्वों को लीजिये। किसी प्राणी के प्राणों का अपहरण ही हिंसा नहीं है । असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि भी हिंसा ही हैं। हिंसा और अहिंसा के निर्णय के लिये बाह्य क्रिया की अपेक्षा मानसिक क्रिया अथवा परिणाम ही प्रधान हैं। एक व्यक्ति बाह्य हिंसा न करके भी हिंसा का भागी बन सकता है-जैसे कसाई । क्योंकि हिंसा न करने पर भी उसका मन सदा हिंसा के भाव से कलुपित रहता है । दूसरा-हिंसा करके भी हिंसक नहीं होता है। जैसे-एक सच्चा डाक्टर । अकस्मात् उसके हाथ से किसी के प्राणों का हनन भी हो जाये, वह हिंसक नहीं है। क्योंकि उसके मन में हिंसा करने का भाव ही नहीं रहता।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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