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जीवन, व्यक्तित्व और विचार
वस्तु में अनेक अंत अर्थात् धर्म होते हैं । प्रनेक का अर्थ यहां पर विवक्षित एवं विवक्षित परस्पर विरोधी दो धर्मो को लेना होगा । नित्य से विरोधी अनित्य, एक से विरोधी अनेक, भेद से विरोधी अभेद भाव से विरोधी प्रभाव श्रादि । इन्हीं वर्गों को जो ग्रहण करता है वह अनेकान्त है । अनेकान्त वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक है । 'स्यात्' इम निपात का अर्थ है कथंचित् ग्रर्थात् किसी प्रकार से या अपेक्षा से होता है । एक वस्तु दो विरोधी धर्म किसी खास विवक्षा से ही रह सकते हैं । जैसे 'इंद्रदत्त पुत्र है | यहां अपने पिता की पेक्षा से कथन है । 'इंद्रदत्त पिता हैं। यहां अपने पुत्र की अपेक्षा से कथन है । 'वस्तु नित्य है' यह द्रव्य दृष्टि की अपेक्षा से कथन है । 'वस्तु श्रनित्य है । यह पर्याय दृष्टि की अपेक्षा से कथन है ।
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एक ही दृष्टि से वस्तु नित्य और नित्य कदापि नहीं हो सकती । वक्ता जिस समय द्रव्य दृष्टि की अपेक्षा से कथन करता है उस समय पर्याय दृष्टि प्रविवक्षित होने से वह गौण हो जाता है । वस्तु का निरूपण करते समय पूर्वोक्त दो दृष्टियों में से एक को मुख्य श्रीर दूसरे को गौण तो किया जा सकता है - सर्वथा त्याग नहीं किया जा सकता । नमस्त संसार विरोधी बातों से भरा पड़ा है । इस बात को सभी भली भांति जानते हैं । ऐमी अवस्था में उन विरोधों का निराकरण स्याद्वाद के द्वारा ही हो सकता है, किसी एक ही पक्ष को पकड़ने से नहीं । श्राचार्य अमृतचन्द्र सूरी ने अपने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में अनेकांत की महिमा इस प्रकार गायो है
परमागमस्य वीजं निषिद्ध जात्यं घ - सिन्धुरविधानम् ॥
सकल नय - विलसितानां विरोध मथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
तटस्थ और मध्यस्थ बुद्धि से देखने और सोचने के लिये हमें महावीर ने अनेकांत श्रौर स्याद्वाद को प्रदान किया है । यह उनकी विशिष्ट देन है । इसी मध्यस्थ दृष्टि को श्राप सत्याग्रही दृष्टि भी कह सकते है । इसका तात्पर्य यह है कि जैसे तुम्हारे दृष्टिकोण में सत्यांश है, वैसे ही सामने वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण में भी सत्यांश है । तुम अपने ही दृष्टिकोण को सत्य और अन्य के दृष्टिकोण को असत्य मत मानो ! परन्तु उसके दृष्टिकोण में भी जो सत्यांश है उसे समझने के लिये प्रयत्न करो | अनेकांत के विना लोकव्यवहार चल नहीं सकता । जो अनेकांत या स्याद्वाद को विरोध करते है वे भी इसी के द्वारा अपने व्यवहार को चलाते हैं । संसार में जितने विरोध हैं वे सब अनेकांत या स्याद्वाद को अपनाने से ही शांत हो सकते हैं । वे विरोध सामाजिक हों, धार्मिक हों, राजनैतिक हों या और किसी प्रकार के हों ।
स्याद्वाद की दृष्टि से एक ही वस्तु में विरोधी धर्मो का अवस्थान थोड़ा असमंजस प्रतीत होता है । यही कारण है कि शंकराचार्य जैसे विद्वान् भी इस स्याद्वाद को नही समझ सके । इस संदर्भ में यह प्रश्न भी उठना सर्वथा स्वाभाविक है कि क्या जो वस्तु नित्य है वह अनित्य भी है ? जो एक है वह अनेक भी है ? जो सत् है वह ग्रसत् भी है ? जो वाच्य है वह श्रवाच्य भी है ? जो भावस्वरूप है वह प्रभावस्वरूप भी है ? जो सुखदायक है वह दुःखदायक भी है ? जैन तत्व ज्ञान इन विरोधी धर्मों का निराकरण नहीं करता वल्कि समर्थन करता है । यही स्याद्वाद की विशेषता है ।