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भगवान् महावीर की वे बाते जो आज भी उपयोगी हैं
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, अपने सुख-दुःख का उत्तरदायित्व अपनी आत्मा पर ही है और अपनी परिस्थितियों का निर्माता अपनी आत्मा ही है' अन्य नहीं।'
ऐसी भावनाओं का अभ्यास, जो कि धारणा रूप में बन चुका हो, प्रतीति का परिष्कार करता है और उदात्त भावों एवं प्रशस्त वृत्तियों में स्थिर रहने का वल प्रदान करता है।
कर्मवाद और आत्मकर्तृत्व के विषय में अनेक युक्तियों-प्रयुक्तियों और तर्क-वितर्को का आगमों तथा प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन है। रुचि का संशोधन :
सामान्य जीव की यही धारणा होती है कि परिग्रह और विषय-सेवन ही सुख का स्रोत है । अतः उसकी रुचि भी अनादि कालीन अभ्यास से अनायास ही परिग्रह-संचय
और विषयों की ओर बढ़ती रहती है । आज का वातावरण भी परिग्रह और वैषयिकता प्रधान हे । इस कारण रुचि अत्यन्त विकृत हो गई है । विकृत रुचि के कारण धन-दौलत को ही सर्वस्व मानकर उस पर अपना ही एकाधिपत्य जगाने की वृत्ति, विपयों के सेवन की तीव्र इच्छा, विना श्रम किए उत्कृष्ट सुख-भोग की आकांक्षा, दूसरों के श्रम के फल को हड़प लेने की वृत्ति, आराम-तलबी, आवेश युक्त श्रृंगार वृत्ति और देहाभिमान से युक्त भावना पैदा होती है । रागादि हेय भावों में उपादेयता की बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।
___ भगवान् ने रुचि के संशोधन के लिए निम्नलिखित भावों के अभ्यास का उल्लेख किया है
(अ) रागादि को हेयता के लिये भावाभ्यास-'वही सत्य है, शंका से रहित है, जिसे राग-द्वेप से रहित आत्माओं ने जाना, देखा, अनुभव किया और कहा है । 3
(आ) आत्मशुद्धि के उपायों मे उपादेयता की बुद्धि बनाने के लिये भावाभ्यास 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन (आत्म-ग्रन्थियों को भेदन करने के उपाय रूप वीतराग उपदेश) ही सत्य है, अनुत्तर है, केवलिक है, प्रतिपूर्ण है, नैयायिक मार्ग है, संशुद्ध है....सर्व दु.खों का अन्त करने वाला है। यही अर्थ है, परमार्थ हे, शेप अनर्थ है ।'५
(इ) परिग्रह-वृत्ति, वैषयिक रुचि और मृत्यु भय का संक्षय करने के लिये तीन मनोरथों के अभ्यास का विधान है । यथा
१. - उत्तरज्झयण २०/३६:३७ । - २. भगवई १७/४/६०१ । ३. भगवई १/३/३७ । ४ आवस्सय, भगवई ६/३३/३८३ । ५. भगवई २/५/१०७ ।