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ग्रास्था को जमाने के विषय में ये 'अस्तित्ववाद' का प्रतिपादन करके, व्यक्तियों के को दृढ़ करते थे ।
मनोवैज्ञानिक संदर्भ
मुख्य मुद्दे हैं । भगवान् विविध युक्तियों से श्रद्धा गुण को परिष्कृत करते थे ग्रास्था
भगवान् के 'ग्रस्तित्ववाद' के प्रतिपादन से यह निष्कर्ष निकलता है, कि जो है, उसे 'है' और जो नहीं है, उसे 'नहीं है' ही मानना चाहिए । जो है, उसे 'नहीं है' और जो नहीं है, उसे 'है' मानने से ग्रास्था विकृत होती है । मिथ्या ग्रास्था से मिथ्याज्ञान और चारित्र हीनता का ही उद्भव होता है, सम्यग् ज्ञान और चारित्र - शीलता का नहीं ।
इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान् महावीर का उद्घोप, अन्य तैथिकों को इस प्रकार सुनाया - 'हम जो है उसे 'नहीं है' नहीं कहते हैं और जो नहीं है उसे 'है' नहीं कहते हैं । सर्व अस्ति भाव को 'ग्रस्ति' कहते हैं और सर्व नास्तिभाव को 'नास्ति' कहते हैं ।"
यह है भगवान का ' यथास्थित वस्तुवादी दर्शन' ।
प्रतोति का परिष्कार :
तर्क - शुद्ध स्थिर बुद्धि को प्रतीति कहते हैं । जब तर्क सीमा का अतिक्रमण करने लगता है, तब वह अशुद्ध हो जाता है और प्रतीति में भी मालिन्य उत्पन्न कर देता है । 'भ्रम या विभ्रम भी प्रतीति का ही मलिन रूप है । प्रतीति के ग्रात्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि स्तर पर कई मलिन अवस्थाएं होती हैं । प्रतीति की शुद्धि ही विग्रह, कदाग्रह यादि का मूल है । भगवान् ने तर्क और प्रितीति के परिष्कार के लिए निक्षेप, नयवाद, प्रमाणवाद, स्याद्वाद, कर्मवाद यादि का प्रतिपादन किया है । नय, निक्षेप आदि का तर्क से साक्षात् सम्बन्ध है और भाव- प्रतीति का माक्षान् सम्बन्ध कर्मवाद से है ।
आज मनुष्य को दया, सत्य, अचौर्य, न्याय, नीति यादि शुभ भावों का विपन्नता. श्रसम्मान. दुःख, हीनता यादि अशुभ फल दिखाई देते हैं और हिंसा, झूठ, चोरी, अन्याय, प्रनीति, क्रूरता, तिकड़मवाजी आदि अशुभ भावों का सम्पन्नता, सत्ताधीशता, सम्मान, सुख यादि शुभ फल दिखाई देते हैं और वे यह मानते हैं कि हमारी पीड़ा, दुख, दैन्य, शोपण, हीनता आदि का कारण जातिवाद, सामाजिक-विपमता, शामन यादि परजन हैं । बुद्धि की संकुचितता से, अल्पकालीन वोध को सम्पूर्ण कालवोध मान लेने ने और निमित्तों को ही प्रधान मान लेने से तथा कर्मवाद का सही ज्ञान न होने से ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती है । इस विकृति के परिमार्जन के लिए, भगवान् ने कर्मवाद और ग्रात्मकर्तृत्ववाद का प्रतिपादन किया है ।
कर्मवाद का साररूप और नैतिकता की नींव रूप उन प्रतीति को दृढ बनायो । 'शुभ भावों से किये गये शुभकर्म, शुभ फल प्रदाता होते हैं और अशुभ भावों से किये गये जुन फर्म प्रशुभ फल प्रदाता होते हैं । कर्म का कर्ता श्रात्मा ही है । इस विषय में भगवान् महावीर का उद्घोष है ।
१. भगव ७/१० ।
२. दववाडय ३४ ।