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महावीर - वाणी : सही दिशा - बोध
• डॉ० प्रेमप्रकाश भट्ट
प्रेय और श्रेय :
विश्व में जितने भी धर्म प्रचलित हैं उन सब में अन्तर्निहित एकता की चर्चा अक्सर की जाती है, सभी धर्म मनुष्य के भीतर छिपी हुई श्रेय व प्रेय की ग्राकांक्षाओंों में चलने वाले द्वन्द्व को मर्यादा के अनुशासन में वांधते हैं । प्रेय-पथ, लौकिक सुख-समृद्धि, सांसारिक प्रगति तथा व्यक्ति के स्वय के सुख व समाज में उसकी पद-प्रतिष्ठा से सम्बन्धित रहता है । उसके ग्रहम् की तुष्टि इसी पथ पर चलने से होती है । वह अपनी पूरी शक्ति व क्षमता के साथ जीवन-संघर्ष में अपने को सफल बनाने के उद्योग में लगा रहता है । लेकिन इन प्रयत्नों में उसको क्रूर-कठोर वनकर, महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये हर सम्भव उपाय अपना कर बढ़ना पड़ता है । स्वाभाविक ही है कि स्वार्थी व संकुचित वृत्तियां उसके भीतर पैठकर उसको अनिष्ट की ओर दौड़ाती हैं । और तब व्यक्ति के बाहर का समाज, उसकी प्रचलित व्यवस्था, धर्म व कानून की मर्यादायें उसके ग्राड़े आती हैं । महत्वाकांक्षा की दौड़ में मनुष्य इन सबको कुचलकर रौंदता हुआ किसी भीपण श्रमर्यादा का जनक न वन जाय, इसीलिए श्रेय की आकांक्षा उसको, उसकी ग्रंथ प्रगति को अंकुश में वांधती है । यहीं पर प्रेय व श्रेय के द्वन्द्व का का जन्म होता है । धर्म इस अवसर पर मनुष्य को भीतरी सुख-शान्ति, त्याग, परोपकार, सेवा व करुणा की ओर ग्राकर्षित कर लौकिक और स्थूल सतह के नीचे छिपे ग्रानंद के किसी गुप्त स्रोत की प्रोर उन्मुख करता है । मनुष्य अपनी व्यक्ति वद्ध, देश-काल वद्ध वारणा की गुलामी से मुक्त होकर देश-कालातीत समष्टि धर्म की लहरों पर तैरने लगता है । वह सचमुच अपने भीतर जगे हुए इन नवीन अनुभवों से साक्षात्कार करके रोमांचक ग्राल्हाद के निविड़-सुख में डूबने-उतरने लगता है । यही श्रेय की प्रतीति है ।
धर्म की सामयिकता का प्रश्न :
धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन से आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि व्यक्ति को उसके निजी स्वार्थो की कैद से मुक्त करके समाज के व्यापक हितों की ओर उन्मुख करना ही हर धर्म का लक्ष्य रहा है ।
धर्मो की आधारभूत परिकल्पना के कोई आदर्श रहा है । यह सच है कि मानव लौकिक दृष्टि का विकास हुआ है । धर्म के
पीछे व्यक्ति और समाज के हित का कोई न इतिहास के पिछले एक हजार वर्ष के भीतर दायरे में ग्रव तक जो क्रिया-कलाप चला करते