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दार्शनिक मन्दर्भ
उत्पादन व्यक्तिगत था। हालांकि उस समय भी, समाज के एक वर्ग में गंचय और गोषणा की प्रवृत्ति घर कर चुकी थी। अपरिग्रहवाद का उद्देश्य प्रार्थिक विषमता को स्वेच्छा में कम करना था । धन और भौतिक सुनों के प्रति वितृपणा उत्पन्न करने के पीछे भी उनका यही उद्देश्य था। महावीर ही नहीं उनके समकालीन सभी विचारकों में भौतिक मूनों और वन के प्रति उपेक्षा का भाव पाया जाता है। महावीर राजनेता या समाज व्यवस्थापक नहीं थे। वे एक आध्यात्मिक माधक थे। इसलिए उनके विचारों का अनुकरण आध्यात्मिर लक्ष्य को पाने के लिए ही किया गया और भारतीयों का सामाजिक जीवन ज्यों का त्यों अप्रभावित रहा। व्यवहार : दुविधा का संकट :
अब हम २५००वें निवारण महोत्सव के अवसर पर चाहते हैं कि दुनिया उनके बताए मार्ग पर चले, क्योंकि उनके बताए मार्ग पर चलकर ही वह सुख-शांति प्राप्त कर सकती है, और महावीर की विचारधारा प्राज के जीवन से जुड़ जाय जिससे आधुनिक जीवन के मूल्यों में गतिशील संतुलन स्थापित किया जा सके । पर नियति की विडम्बना यह है कि जिन सिद्धान्तों का हम विश्व में प्रचार चाहते है, हम उनका स्वयं के जीवन में प्रयोग नहीं करना चाहते । यह एक व्यावहारिक सत्य है कि प्रचार पर उन्हीं मूल्यों की पूछ होती हैं जो प्रयोग से सिद्ध किए जाते हैं। महावीर के सिद्धान्त मूर्य के प्रकाश की तरह स्वच्छ,
और आकाश की तरह उन्मुक्त हैं, लेकिन हम चाहते है कि जितना प्रकाश और आकाश हमने घेर रखा है उसे ही महावीर का समग्र और आकाश समझा जाय । वन सत्ता और साधना के शिखरों पर बैठे लोगों ने महावीर के विचारों पर भी एकाधिकार कर लिया है। आज का प्रत्येक बुद्धिजीवी जो परम्परा और आधुनिकता की देहरी पर खड़ा है, इस दुविधा से ग्रस्त है, उसे कोई रास्ता नहीं सूझता । एक प्रश्न :
__ मैं पूछता हूँ क्या सूर्य के प्रकाश और आसमान का भी कोई आधुनिक संदर्भ है ? सम्पूर्ण प्रखरता और व्यापकता ही उनका वास्तविक संदर्भ है । अतः उक्त विचारों को बदलने, या उनकी नई व्याख्या करने के बजाय हमें स्वयं को आधुनिक संदर्भ के सांचे में हालना होगा। महावीर के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य का अर्थ है उसकी पूर्ण मुक्ति, जबकि आधुनिक संदर्भ में व्यक्ति को जीने की पूर्ण स्वतंत्रता। राज्य में व्यक्ति के कुछ मूल अधिकार हैं जिनके उपभोग की पूर्ण स्वतत्रता उसे होनी चाहिए। सही पथ :
_ मैं नहीं सोचता कि आधुनिक संदर्भ में व्यक्ति जिन मूल्यों के लिए संघर्ष कर रहा है, वही उसके जीवन का चरम सत्य है या यह कि इससे जीवन की समस्याओं का अंतिम हल निकाला जा सकता है । यदि ऐसा होता तो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न देशों में अशांति और मानसिक संत्रास क्यों ? इससे लगता है कि सुख-शांति के लिए केवल भौतिक मूल्यों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता । उसके लिए किसी आंतरिक स्रोत की खोज करनी होगी। मैं समझता है कि महावीर का विचार स्वातंत्र्य का प्रादर्श इस खोज का आंतरिक स्रोत हो सकता है।