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दानिक संदर्भ
थे, उनको इस दायरे के बाहर भी प्रचलित किया गया और इस प्रकार धर्म की सम्प्रता को चुनौती दी गई । फलस्वरूप धर्म ने अपने शेप दायरे में अपने को गमेट गार लोक-जीवन के सहज विकास से अपने को और काट लिया। इस प्रकार धर्म का वर्चस्व काल के थोड़ी की मार से काफी हद तक क्षीण हुया है । योरोपीय दंगों का ध्यान म चिन्ताजनक स्थिति की ओर गया और वहां के धर्मानुयायियों ने धर्म के पुरस्कार की योर रिट दौड़ाई । अब तक धर्म संदेशों में जिन बढ़ प्रावृत्तियों का चलन था, उनको अर्थपूर्ण बनान की दिशा में ये लोग प्रवृत हुए। तात्पर्य यह है कि देश-काल मी बदली हुई स्थितियों में धर्म को जोड़ा गया। अब आज के मनुष्य को और उसकी जीवन-चर्या को ध्यान में रखकर धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। तभी धर्म का एक सामयिक स्वरूप जगर पायेगा । इसके अभाव में वह मात्र एक पुरानी, पिटी हुई मृत हड़ियों का दांना सममा जायेगा जो धीरे-धीरे लोक-रुचि से कटा हुआ और अर्थहीन बनकर रह जायेगा। गाई धर्म में सामयिकीकरण की लहर इधर बड़ी तेजी से चल रही है । प्राचीनता के अनुयायियों ने इधर इसका जोरदार विरोध किया है, पर उनका विरोध अधिक समय तक टिक नहीं सका । आज स्थिति यह है कि धर्म की सनातन मान्यताओं को युग धर्म से जोड़कर उसको सामयिक रूप देने का आन्दोलन हर समाज में जोर पकड़ रहा है।
यों भी आज के समाज की पहचान उसके उदार दृष्टिकोण व खुलेपन से होती है। इन पिछली दो-तीन सदियों में मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, तत्वविज्ञान की खोजों के फलस्वरूप हम अपनी मानव सभ्यता को कुछ अधिक विश्वास के साथ पहचानने लग गये हैं। इसी का यह परिणाम है कि आज का साधारण मनुष्य इस नव-जाग्रत विवेक से अपने को व अपने समाज को जानना चाहता है। हमारा देश भी आने वाले वर्षों में कुछ इसी दिशा की ओर जायेगा, इसका स्पष्ट संकेत मिलने लगा है। ऐसी परिस्थितियों में क्या यह उचित न होगा कि समय की नब्ज पहचान कर हम अपने को लोक-जीवन के सहज विकास से जोड़ें ? यह प्रश्न हम भारतीयों के लिये विशेष महत्त्व रखता हैं क्योंकि मन व मस्तिष्क के खुलेपन में हमारे पूर्वजों का, प्रारम्भ से ही पूर्ण विश्वास रहा है। पश्चिम के देश अनुभवों की लम्बी डोर के सहारे आज जिस पड़ाव पर पहुंचे हैं, उसका परिचय हमें पहले से ही था। जैन धर्म की गहरी अर्थवत्ता :
भारत में प्रारम्भ से लेकर जिन धर्मों का प्रचलन देखने को मिलता है यों तो उसकी विकासमान परम्परा से इस बात का प्रमाण मिलता है कि उसके मूल में विराट सामंजस्य-भावना है । फिर भी इस विशेषता का जैसा तात्विक स्वरूप जैन धर्म-दर्शन में उभर कर स्पष्ट हुया है-वैसा अन्यत्र कहीं नहीं । इतिहास की सुदीर्घ परम्परा में जीवन सत्य की पहचान भारतीय मनीपी को जिस रूप में हुई है, उसी को अपने में सन्निविष्ट कर जैन धर्म-दर्शन ने रूप ग्रहण किया है। जैन धर्म के प्रारम्भिक उद्भव व विकास की परिस्थिति पर विचार करने से इस शंका का उत्तर मिलेगा कि आखिर किन कारणों से जैन धर्म-दर्शन का प्रान्तरिक संरचना का नियमन इस रूप में हुआ है कि वह देश-काल से निर्बन्ध