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महावीर की दृष्टि में स्वतन्त्रता
का सही स्वरूप • मुनि श्री नथमल
स्वतन्त्र और परतन्त्र :
यदि यह जगत अढत होता—एक ही तत्व होता, दूसरा नहीं होता तो स्वतन्त्र और परतन्त्र की मीमांसा नहीं होती । इस जगत में अनेक तत्व हैं। वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनमें कार्य-कारण का सम्बन्ध भी है । इस परिस्थिति में स्वतन्त्र और परतन्त्र की मीमांसा अनिवार्य हो जाती है। दूसरी बात-प्रत्येक तत्व परिवर्तनशील है । परिवर्तन तत्व की आंतरिक प्रक्रिया है । काल के हर क्षण के साथ वह घटित होता है । सूर्य और चन्द्रकृत काल सार्वदेशिक नहीं है। जो परिवर्तन का निमित बनता है, वह काल सार्वदेशिक है, वह प्रत्येक तत्व का आंतरिक पर्याय है। वह निरन्तर गतिशील है। उसकी गतिशीलता तत्व को भी गतिशील रखती है । वह कभी और कहीं भी अवरुद्ध नहीं होती । परिवर्तन की अनिवार्य शृंखला से प्रतिबद्ध तत्व के लिए स्वतन्त्र और परतन्त्र का प्रश्न स्वाभाविक है ।
__जो कार्य-कारण की शृंखला से बंधा हुआ है, वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता । जिसके साथ परिवर्तन की अनिवार्यता जुड़ी हुई है, वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता । मनुष्य कार्य-कारण की शृखला से बंधा हुया है, गतिशीलता का अपवाद भी नहीं है, फिर वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है ? क्या फिर वह परतन्त्र है ? कोई भी वस्तु केवल परतन्त्र नहीं हो सकती। यदि कोई स्वतन्त्र है तो कोई परतन्त्र हो सकता है और यदि कोई परतन्त्र है तो कोई स्वतन्त्र हो सकता है। केवल स्वतन्त्र और केवल परतन्त्र कोई नहीं हो सकता। प्रतिपक्ष के विना पक्ष का अस्तित्व स्थापित नहीं किया जा सकता । मनुष्य परतन्त्र है, इसका अर्थ है कि वह स्वतन्त्र भी है । अस्तित्व की व्याख्या:
स्वतन्त्र और परतन्त्र की सापेक्ष व्यवस्था हो सकती है। निरपेक्ष दृष्टि से कोई वस्तु स्वतन्त्र नहीं है और कोई परतन्त्र नहीं है । महावीर ने दो नयों से विश्व की व्याख्या की। पहला निश्चय नय और दूसरा व्यवहार नय । निश्चय नय के अनुसार प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में प्रतिप्ठित है । न कोई आधार है और न कोई आपेय, न कोई कारण है और न कोई कार्य, न कोई कर्ता है और न कोई कृति । जो कुछ है वह स्वरूपगत है । यह अस्तित्व की व्याख्या है। उसके विस्तार की व्याख्या व्यवहार नय करता है । उसकी सीमा में आधार