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राजनीतिक संदर्भ
समाप्त करने की दिशा में अत्यधिक परिश्रम किया। भगवान महावीर का जीवन घटनावहुल नही है फिर भी जो घटनाएं स्पष्ट हैं उन पर हम विचार करें तो ज्ञात होगा कि अपने जीवन के शैशवकाल में ही सर्प की घटना में उन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया । साधना प्रारम्भ करने के पूर्व निर्णय यह लिया कि जब तक साधना पूर्ण न हो तव तक किसी को उपदेश नहीं दिया जायगा तथा उन्होंने जिस सत्य का साक्षात्कार किया उसी का साधना पूर्ण होने के पश्चात् उपदेश दिया । यदि यह कहा जाये कि उन्होंने जो किया, उसीका उपदेश दिया तो अनुचित नहीं होगा। उनके वारणी और कर्म मे सान्य रहा है । सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने देश में सात्विक जीवन का वातावरण निर्माण किया । भगवान महावीर का जीवन इतना सर्वागपूर्ण है कि आज का नेतृत्व यदि उससे शिक्षा ग्रहण करे तो इस धरा को स्वर्ग बनाया जा सकता है।
सादगी और सरलता:
मेरे विचार में हमारे नेतृत्व को सर्वप्रथम सादगी और सरलता का महत्व स्थापित करके सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन करना चाहिये ताकि मानव का दृष्टिकोण अर्थप्राधान्य न रहकर मानवीय हो सके । जिस प्रकार भगवान महावीर ने प्रचलित रूढ़ियों का डट कर विरोध किया उसी प्रकार नेतृत्व को उपर्युक्त परिस्थिति के उन्मूलन के लिये दृढ़प्रतिज होना चाहिये किन्तु इसके लिये प्रवल आत्मबल की आवश्यकता है। आत्मवल किसी भी मानव में तव उत्पन्न होगा जवकि उसका वैयक्तिक आचरण शंका से परे तथा कथनी के अनुरूप हो। यह नहीं हो सकता कि भाषा में तो सादगी सरलता की वकालत की जावे तथा आचरण मध्ययुगीन सामंतवाद के अनुकूल हो । इस प्रकार के कथनी-करनी के विरोध होने पर नेतृत्व की छाप जन-मानस पर ठीक नहीं पड़ सकती । भगवान् महावीर का युग तो बहुत प्राचीन है । यदि वह गांधी युग का आदर्श ही सामने रखे तो देश का बड़ा भला हो सकता है। गांधी नित नवीन थे। वे किसी वाद से बंधे नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यदि मेरी कल की बात आज के विचार से गलत पड़े तो उसे छोड़ दो । वाद से बंध जाने पर नवीन विचारों के प्रगतिशील रुख में व्यवधान पड़ जाता है। भगवान महावीर ने जिस प्रकार मानव के हेतु अपरिग्रह अथवा अल्प परिग्रह के सिद्धान्त का निरूपण किया, उसी प्रकार हमारे नेतृत्व को इस दिशा में पहल करनी चाहिये । आर्थिक विपमता की ममाप्ति के विना देश में घृणा और विद्वेप का वातावरण समाप्त नहीं हो सकता। यह तव हो सकता है जब नेतृत्व स्वयं इस प्रकार के व्रत का व्रती हो जाये । वह स्वयं अत्यधिक परिग्रही हो अथवा वैलासिक वस्तुओं का उपयोग करता हो और देश के नागरिकों को संचय वृत्ति के विरुद्ध आह्वान करें अथवा दैनन्दिन वस्तुओं के परिमित उपयोग की बात कहे तो उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा । जब नेतृत्व स्वयं इस प्रकार का जीवन जीयेगा तब शासकीय तंत्र पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ेगा । नेतृत्व को शासकीय तंत्र में ईमानदारी तथा प्रमाणिकता लाने का प्रयत्न करना चाहिये । वैयक्तिक गुणों के आधार पर ही मनुष्य में माहम का संचार होता है।