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लोक कल्याणकारी राज्य और महावीर की जीवन-दृष्टि
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वृहद्रूप देश बन सकता है । व्यवस्था की दृष्टि से उसे हम एक राष्ट्र की संज्ञा दे सकते हैं। राष्ट्र का शासन उसके संविधान के द्वारा हुया करता है । भगवान् महावीर की दृष्टि में किसी भी राष्ट्र का संविधान सम्पूर्ण नहीं हो सकता। विधान है तो परिधि का होना अनिवार्य है और यदि वह सम्पूर्ण नहीं है तो निश्चय ही वहां जीवन में हिंसा है। उनका राष्ट्रीय और सामाजिक आदर्श रहा है - "स्वयं जीओ और दूसरों को जीने दो।" यह वस्तुतः किसी भी राष्ट्र के लिये कितनी सरल और स्वाभाविक व्यवस्था है। इस प्रकार की व्यवस्था में व्यक्ति का हृदय हिन्द-महासागर बन अपनी विशालता, सहृदयता और परोपकारिता जैसी उदात्त वृत्तियों से लहरा उठेगा। यहां पारस्परिक उत्थान के लिये तो अवकाश है किन्तु पतन के लिये कोई कार्यक्रम नहीं। इसीलिये जैन दृष्टि में किसी भी जन कुल को हम सीमित नहीं कर सकते।
श्रम और संकल्प की अनिवार्यता. :
आत्म स्वभाव का एक पक्ष अहिंसा है दूसरा सत्य और क्रमशः अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । महावीर के राज में अपरिग्रहवाद का वातावरण सभी को सद्भाव में रहने के लिये आमंत्रित करेगा। ऐसी राजकीय व्यवस्था में श्रम और संकल्प की अनिवार्यता होगी। प्रत्येक श्रमी को स्वाजित कर्मानुसार अपने पेट भरने के लिये यथेष्ट खाद्य सामग्री उपलब्ध होगी और उसे पेटी भरने के लिये कोई अवसर न मिलेगा।
श्रम से प्रसूत जागतिक सुविधा का सोद्देश्य उपयोग हुआ करता है। प्रमाद-जन्य उपलब्धि से व्यक्ति में विकारों का संचार हो उठना अत्यन्त स्वाभाविक है। विकारों का शिकार हुये विना व्यक्ति न तो आत्मार्थी होगा और नाहीं परमार्थी। सर्वोदय न कि वर्णोदय :
महावीर की राज्य व्यवस्था में सभी का उदय सम्भव है। व्यक्ति विशेष का चरमोत्कर्प उसके पड़ोसी के लिये घातक नहीं अपितु उसकी पट्कर्मो से अनुप्राणित दिनचर्या,दानव्रत से समता तथा सहअस्तित्व का संचार करती है। प्राणी मात्र के प्रति नागरिक का दृष्टिकोण उदार तथा समतामूलक हो तो फिर इससे बड़ा साम्यवाद और क्या हो सकता है । वहां वस्तुतः सर्वोदय होगा, वर्गोदय नहीं, वहां प्राणी-पोपण होगा, समाज-शोपण नहीं । ऐसी स्थिति में वैचारिक विरोध हो सकता है व्यक्ति-विरोध नहीं। विपरीत परिस्थिति में भी व्यक्ति का दृष्टिकोण मध्यस्तता पूर्ण परिलक्षित होगा
सत्वेपु मैत्री, गुणिपु प्रमोद, क्लिप्टेषु जीवेपु कृपापरत्वम् मध्यस्थभावं विपरीत वृत्ती,
सदा ममात्मा विद्धातुदेवः । यहां दाता-विधाता नहीं, स्वयं का सम्यक् पुरुपार्थ ही व्यक्ति के उत्कर्ष का मुख्याधार है । ऐसी राज-व्यवस्था में व्यक्ति की आस्था अपने श्रम, समता और स्वतंत्रता पर आघृत होगी।