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राजनीतिक नंद
हैं | राज व्यवस्था के लिये राजदण्ड का व्यवहार प्रायः अनिवार्य होता है । श्रीसोमदेव विरचित 'नीतिकाव्यामृत' नामक ग्रंथ में राजा के कर्तव्य की चर्चा इस प्रकार हुई है'राजोहि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः'
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अर्थात् दुष्ट परावियों को सजा देना और सज्जन पुरुषों की रक्षा करना राजा का धर्म है । राजा और राज्य के प्रति राज-वासियों के भी कुछ दायित्व होते हैं । राजा और प्रजा वस्तुतः अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । यथा राजा तथा प्रजा ।
इकाई से दहाई :
महावीर का दृष्टिकोण इकाई से दहाई को स्पर्श करता है । वे किसी रूप में अनेक से एक तक नहीं याते ग्रपितु एक से अनेक को अनुप्राणित होना मानते हैं । व्यक्ति का विकास विभु वनने तक होता है । राज तंत्र के विषय में भी यही बात चरितार्थ है । एक श्रावक सथा कि श्रावकों का कुल सब सकता है और कुल से समुदाय, समाज आदि प्रभावित हुआ करते हैं । सच यह है कि - "नुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, उसका असर राष्ट्र पर हो ।" फिर किसी समुदाय अथवा समाज की इकाई कैसी हो ? कहा है- "जे गिलाणंपडियरई से बन्ने” – जो वृद्ध, रोगी और पीड़ितों की सेवा करता है, वस्तुतः वही धन्य है ।
वित्त से चित्त मुक्त हो :
वित्त से चित्त मुक्त हो तभी जीवन व्रतोन्मुख हो सकता है। जीवन में व्रत से व्यक्ति की साधना प्रारम्भ होती है । व्रत साधना अन्तर से उद्भूत हो तो वह शाश्वत होती है । वाहर से थोपा गया व्रत-विधान प्रायः टिकाऊ प्रमाणित नहीं हुआ करता, अन्तर से व्रतों के प्रति जागरण संकल्प पर निर्भर करता है । संकल्प के मूल में श्रद्धा है | किसी के प्रति श्रद्धा भाव उसमें संकल्प शक्ति का संचार किया करता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ऐसे कुविचार हैं जिनसे श्रद्धा भाव उत्पन्न नहीं हो सकते । इन विकारों से विमुक्ति के लिये महावीर ने पंचारगुव्रतों की चर्चा की है । ग्रहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह जैसे उदात्त ग्रात्म स्वभावों के चिन्तवन से व्यक्ति की साधना सम्पन्न हुआ करती हैं । व्यक्ति सथा कि समाज का संवर्द्धन सम्भव हुआ करता है ।
व प्रश्न है कि ग्रहना किसी परिधि में सीमित की जा सकती है ? जब यह आत्मा का स्वभाव है कि इसे हम व्यक्ति द्वारा निर्धारित किसी सीमा परिधि में किस प्रकार परिसीमित कर सकते हैं । हिंसा का क्षेत्र निस्सीम है । वह वस्तुतः सर्वभूत है । किन्तु उसके आचरण पक्ष को हम सुविधानुसार सीमित कर सकते हैं । श्रावक की हिंसा और मुनि की हिंसा में अन्तर है । मुनिचर्या में सर्वदेशीय व्रत- विस्तार है। वहां राष्ट्र जैसी किसी भी परिधि का व्यवहार नहीं है - वहां सर्वभूत- प्राणीमात्र का हित - चिन्तन है । अरणुव्रतों का धारी श्रावक किसी राष्ट्र का नागरिक भी हो सकता है । उसकी चर्या सीमारेखाओं में विभाजित की जा सकती है किन्तु मुनि श्रथवा श्राचार्य का क्षेत्र निस्सीम है । वह वस्तुतः किसी राष्ट्र का होते हुये भी अन्तर्राष्ट्र का होता है ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावकों का संघ और संघकुल, समाज तथा उसका