________________
२०
लोक कल्याणकारी राज्य और महावीर की जीवन-दृष्टि
•
डॉ० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया
जैन धर्म के उन्नायकों की एक सुदूरगामी परम्परा रही है, जिसे चौबीस तीर्थंकरों द्वारा समय-समय पर अनुप्राणित किया गया है । ग्राद्य तीर्थंकर ऋषभदेव तथा अन्तिम चौबीसवें तीर्थकर महावीर ऐतिहासिक महापुरुष माने जाते हैं । भगवान् महावीर के पच्चीससौवें निर्धारणोत्सव पर देश में अनेक प्रकार से उनके कल्याणकारी विचारों का विवेचन हो रहा है। यहां हम लोक कल्याणकारी राज्य और महावीर की जीवन-दृष्टि विषयक संक्षेप में विवेचन करेंगे ।
लोक : श्रर्थ और प्रकार :
लोक के अर्थ हैं—- भुवन । पुराणानुसार सात लोक हैं, यथा - ( १ ) भूलोक, (२) भुवर्लोक, (३) खर्लोक, (४) गहर्लोक, (५) जनलोक, (६) तपोलोक, (७) सत्य लोक |
वैद्यक के अनुसार लोक के दो विभेद किये गये हैं—
(१) स्थावर, ( २ ) जंगम । वृक्ष, लता, तृरण आदि स्थावर और पशु पक्षी, कीट, पतंग तथा मनुष्यादि जंगम हैं ।
व्यवस्था और जन-कल्यारण :
सुव्यवस्थित जीवन चर्या के लिये व्यवस्था की श्रावश्यकता होती है । वनी व्यवस्था का एक व्यवस्थापक होता है । व्यवस्था के प्रति जनता की ग्रास्था बनी रहे, उसका दायित्व व्यवस्थापक पर होता है । ग्रास्था गिरी कि व्यवस्था का विसर्जन सुनिश्चित । इस प्रकार लोक में अनेक वार व्यवस्थायें वनीं - बिगड़ीं किन्तु उनके निर्मारण में जनकल्याण की भावना प्रधान रूप से सदा विद्यमान रही है ।
भुवन का उतना भूमि भाग जितना एक राजा द्वारा शासित हो, वस्तुतः राज श्रथवा राज्य कहलाता है । राज की व्यवस्था राजतंत्र होती है । राजतंत्र के सुव्यवस्थित संचालन के लिये एक राजा की आवश्यकता होती है । किसी नये राजा के राजसिंहासन पर ग्रारूढ़ होने का संस्कार प्रायः राजतिलक कहलाता है । इसी को राज्याभिषेक भी कहते