________________
परस्पर उपकार करते हुए जीना ही वास्तविक जीवन
कहीं न कहीं इन वैधानिक प्रावधानों से बचने के उपाय खोजती रहती है । वैधानिक प्रावधानों से पालन के वास्तविक समाधान की ओर गम्भीरता पूर्वक विचार ही नहीं किया जाता। मनुष्य का हृदय सद्-असद् प्रवृतियों का अद्भुत संगम है । धर्म मानव का असद् प्रवृत्तियों को नष्ट करने वाला सबसे प्रभावक सत्य है । किन्तु विज्ञान की चकाचौंध धर्म को प्रति क्षण मनुप्य के हृदय से दूर करती जा रही है । मनुष्य का जीवन भौतिक सुखों की उपलब्धियां खोजने वाला यंत्रमात्र बन गया है, उसका भावात्मक पहलू प्रतिक्षरण टूट रहा है। यदि यही स्थिति रही तो मनुष्य यंत्र मात्र बनकर रह जायेगा। इसलिए सुखी समाज की रचना के लिए उसे तीर्थंकर महावीर के सिद्धांतों के अनुरूप ढालना होगा, सम्यक दृष्टिकोण, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्रतिष्ठा करनी होगी। '
व्यक्तियों की इकाई की संयुक्ति विश्व है । बूद-बूद की संयुक्ति सागर है। इसलिए आदर्श समाज की रचना हेतु व्यक्ति का हित देखना होगा, उसका शृंगार करना होगा। मानव-मात्र का मंगलमय भविष्य ही नवीन समाज का स्वरूप हो सकता है। वर्द्धमान महावीर की विचारधारा वास्तव में प्रत्येक युग के लिए मूल्यवान दस्तावेज है।
भगवान् महावीर के पच्चीस सौ वर्ष पूर्व के उपदेश ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों वर्तमान युग के लिए भविप्य वारणी हों । तीर्थंकर ने कहा था-जाति और कुल के बन्धन कृत्रिम हैं । जिसका आचरण आदर्श हो, वही श्रेष्ठ है। प्ठता जन्म की कसौटी पर प्रमाणित होनी चाहिए। सभी प्राणियों में समान आत्मायें हैं । वे मात्र कर्मों के कारण पृथक-पृथक् गतियों में भ्रमण कर रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा बनने की शक्ति निहित है, जिसे क्रमशः भावनाओं और आचरण की विशुद्धि से ही उपलब्ध किया जा सकता है । तीर्थंकर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए ऐसा पुनीत गंतव्य निश्चित किया । यदि प्रत्येक व्यक्ति अथवा समाज का वहुमत इस पुनीत गंतव्य को अपना लक्ष्य बना ले तो प्रादर्श समाज की स्थापना सहज और सम्भव है । तीर्थंकर महावीर की विचारधारा का मूल उद्देश्य परमात्म तत्व की उपलब्धि का मार्ग है। उनकी विचारधारा निवृत्तिमूलक है, किन्तु आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण मुक्ति के पथिक की मानस-सन्तानें हैं। प्रात्मकल्याण और लोक-कल्याण एक सीमा तक साथ-साथ चलते हैं । इसीलिए महावीर ने अपनी विचारधारा को स्याद्वाद में व्यक्त किया और परमात्म तत्व की उपलब्धि ही जिनका एक मात्र साधन है, ऐसे साधु की एवं गृहस्थ जीवन में रहकर भी धर्म-साधना कर सके, ऐसे व्यक्तियों की आचार संहिता पृथक्-पृथक् निर्धारित की । आदर्श समाज के व्यक्ति का
आचरण कैसा हो, इसलिए व्यक्ति की दिनचर्या तक नियत करदी । देव-दर्शन, गुरु-उपासना स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये दैनिक षट् कर्म प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक माने गए हैं । इन छः कार्यों में अनेक समस्याओं का समाधान निहित है। व्यक्ति के प्राध्यात्मिक, मानसिक एवं नैतिक चेतना का यह मंगल सूत्र है । इसमें व्यक्ति को आदर्श बनाने की अपार क्षमता है। व्यक्ति के आचरण को आदर्श बनाए बिना आदर्श समाज की कामना मात्र कल्पना है । अतएव कहा जा सकता है कि नवीन समाज-रचना का मंगल भविष्य, तीर्थंकर वाणी में निहित हे।