________________
सामाजिक संदर्भ
अपने जीवन को सभी सुरक्षित रखना चाहते हैं फिर दूसरे की सांसों को, जीवन को समाप्त करने का दुराग्रह क्यों ? समाज में अहिंसा की प्राण प्रतिष्ठा करने हेतु प्रभु ने यहां तक कहा-~ग्राचार्य समंतभद्र के शब्दों में-"अहिंसा भूतानां जगति विदितं परमब्रह्म।" अर्थात् अहिंसा में साक्षात् परमेश्वर का निवास है। स्पप्ट है कि तीर्थंकर महावीर ने मानवहृदय में निवास करने वाली सद्-असद् प्रवृत्तियों के अध्ययन के पश्चात् ही अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था। प्रकृति की समस्त प्रक्रियाओं में अहिंसा व्याप्त है। मां के अधरों पर जन्मी लोरियां, पराए दुःखों में सहायता के उठते हुए हाथ, पराए दुःखों में द्रवित नेत्र इसके स्वयं साक्षी हैं । इसलिए सुखद समाज की रचना जिनवारणी के शरण सेवन में ही निहित है।
प्रत्येक व्यक्ति सिक्के के उस पहलू को देखता है जिसमें उसका स्वार्थ निहित हो, उस पृष्ठ को पढ़ता है जिसमें उसका स्वार्थ अंकित हो, किंतु भगवान् महावीर ने स्याद्वाद की दृष्टि में वस्तु को समझकर अाचरण करने का मंगल उपदेश दिया । संसार में अनेक विपमतात्रों का कारण दूसरे के दृष्टिकोण को न समझते हुए आचरण करना है। स्याद्वादं जीने की कला है, सत्यं तक पहुंचने का अचूक सावन है, दृप्टिं निर्मल करने की
औपधि है । विश्व में आदर्श समाज की स्थापना करनी है तो स्याद्वाद के सिद्धांतों को जीवन में उतारना होगा, क्योंकि स्याद्वाद पूर्ण दी है और परस्पर विरोधों का परिहार करके समन्वयवादी दृष्टिकोण का सृजन करता है। वह विचारों को शुद्धि प्रदान कर मनुष्य के मस्तिष्क में से हठपूर्ण विचारों को दूर करके शुद्ध एवं सत्य विचारों के लिए प्रत्येक मानव का आह्वान करता है और यथार्थ दृष्टि का निर्माण सुखी और समाजवादी समाज के निर्माण की मौलिक आवश्यकता है।
मुख एक मनःस्थिति है । सुख की कोई परिभापा निश्चित करना सम्भव नहीं है। किन्तु इतना निर्विवाद रूप से प्रमाणित है कि जो स्वतन्त्र है वह सुखी है। व्यक्ति की म्वतत्रता पर भगवान महावीर ने सबसे अधिक जोर दिया। उनके सन्देशों का सार है'पराधीन रहकर जीवन विताने से मृत्यु श्रेष्ठ है।" इस सिद्धांत का तीर्थकर वाणी में चरम विकास मिलता है । जन्म-मृत्यु के बंधन भी एक प्रकार की परतंत्रता है। इसलिए विकारी प्रवृत्तियों के विसर्जन हेतु सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को प्राचरण में उतारने का मंगल उपदेश दिया। प्राध्यात्मिक दृष्टि से इसका जितना महत्त्व है, उतना ही सामाजिक दृष्टि में । सामाजिक विषमताओं का मुख्य कारण है-व्यक्तियों को दृपित विचारधारा, अनानता और आचरण में शिथिलाचार । यदि प्रत्येक व्यक्ति दर्शन, नान, नागिन की त्रिवेणी का सेवन करे तभी भारत में, विश्व में हम आदर्श समाज की स्थापना को साकार देख सकते हैं। प्रत्येक राष्ट्र जनता की अज्ञानता को दूर करने के लिए सबसे अधिक व्यय शिक्षा पर करता है ताकि जनता में ज्ञान का विकास हो और स्वन्य दृष्टिकोगा वने, सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुकूल समाज का आचरण हो और
ग प्रकार याचरणों को नियंत्रित करने हेतु अनेक कानून-कायदे प्रत्येक देश में प्रचलित हैं, परन्तु इनका परिपालन एक समस्या बनी हुई है। कारण मनुप्य की स्वार्थी बुद्धि