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परस्पर उपकार करते हुए जीना ही वास्तविक जीवन
-अधिक हो रहा है। कहने को विश्व के राष्ट्र एक-दूसरे के निकट या गए हैं, किन्तु अनवरत युद्धों और शीत युद्धों ने विश्व में घृणा और द्वेष फैलाने का दुर्भाग्य पूर्ण कार्य किया है ।
वस्तुओं के मूल्य, मुद्रा का अत्यधिक प्रसार दिनप्रतिदिन बढ़ रहा है। व्यक्ति का मूल्य प्रतिक्षण घट रहा है । संसार में सबसे कोई मूल्य रहित है तो श्रेष्ठ और मूल्यवान मानव । नैतिकता जिस स्तर पर आ गई है उसे देखकर सहज ही कहा जा सकता है कि मानवीय मूल्यों के दृष्टिकोण से भारतीय समाज का नैतिक स्तर निम्नतर स्तर पर आ गया है। भ्रप्टाचार, संचय की दूपित प्रवृत्ति, अनैतिकता भारतीय जन-जीवन का अंग बन गई है । सट्टा एवं लाटरियों के प्रचार-प्रसार ने मनुप्य को पुरुपार्थवादी बनने की अपेक्षा निष्क्रिय पीर भाग्यवादी बनाने में योगदान किया है। वर्तमान समाज परिवर्तन की प्रतीक्षा में है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है ।
तीर्थकर वर्द्धमान महावीर की विचारधारा प्रत्येक वदलते मूल्यों और संदर्भो में पूर्ण और उपयोगी है। महावीर ने दीर्घ काल तक सतत साधना द्वारा सर्वनता प्राप्त की थी। उनके यात्म-जान में प्रत्येक परिवर्तन परिलक्षित होता था । उनके सिद्धांत शाश्वत हैं। उन्हें देश-काल की सीमा में वद्ध नहीं किया जा सकता । वर्द्धमान की विचारधारा नवीन समाज निर्माण में सर्वाधिक उपयोगी है।
वर्तमान युग व्यक्तिवादी होता जा रहा है। समाज और राष्ट्र के प्रति उसे अपने दायित्वों का बोध नहीं रहा । महावीर की विचारधारा इस दूपित प्रकृति से विमुख होने का आश्वासन प्रदान करती है । तीर्थंकर महावीर ने "जियो और जीने दो" एवं "परस्परोपग्रही जीवानाम्" । जसे मंगल सन्देश दिए इन सन्देशों में स्व-पर के समान अस्तित्व की कामना है । परस्पर उपकार करते हुए जीवन व्यतीत करना ही वास्तविक जीवन है। समाज में सभी के समान अस्तित्व का आश्वासन हो और सभी परस्पर सुख-दुःखों में महभागीदार हों, इससे अधिक स्वस्थ समाज और समाजवाद की स्थापना की कल्पना भी सम्भव नहीं हो सकती ! इन दोनों सूत्रों में यह सन्देश निहित है कि दूसरे के अस्तिव' को स्वयं के अस्तित्व के समान स्वीकार करो । परिग्रह से वचो, अत्यधिक संचय की दूषित प्रवृत्ति व्यक्ति की मानसिक चेतना को कुण्ठित कर देती है। सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन में अरुचि उत्पन्न कर देती है। वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही घातक है इसलिए महावीर ने दान का उपदेश दिया । जब तक समाज की मनोवृत्ति में परिवर्तन नहीं आयेगा, समस्त प्रक्रियायें निष्फल ही होंगी।
तीर्थंकर की विचारधारा ने हिंसा को सामाजिक जीवन से निष्कासित कर दिया था, किन्तु भौतिकवादी युग के प्रत्येक चरण के साथ हिंसा की असत प्रवृत्ति समाज में पुनः व्याप्त हो गई । युद्धों की विभीपिका के अतिरिक्त सामान्य जन-जीवन भी असुरक्षित हो गया है। मांसाहारी प्रवृत्ति का प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ रहा है । मांस-मदिरा के निरंतर प्रयोग के कारण मनुप्य स्वस्थ जीवन व्यतीत नहीं कर पा रहा है। मांस का प्रयोग शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों का जनक है । तीर्थकर महावीर की दिव्य वाणी से अमृत छन्दनिःसृत हुए। उन्होंने कहा कि स्वयं की सांसों के प्रति सभी ममता रखते हैं,