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७४] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । .
शील (आत्मस्वभाव) ही निर्मल तप है, तत्वज्ञानका मूल है, विषयोंका शत्रु है और मोक्षका सोपान है। विषय विष समान कहे हैं, क्योंकि विप तो एकवार ही घात करता है, किन्तु विषयोंसे हेटे हुये जीव अनंतवार संसार दुःख भोगते हैं।।
जैसे समुद्र रत्नोंसे भरा हुआ है. परन्तु वह जलसे ही शोभा पाता है। इसी प्रकार आत्मा अनंत गुणोंसे युक्त होते हुये भी शील, पालन करनेसे ही उत्तम गतिको प्राप्त होता है।
(१५) रयणसार (रत्नसार)।
इस प्राभृनमें १६७ गाथाओं द्वारा गृहस्थ और मुनिके आचारका विस्तृत वर्णन है। आचार्यवरने बताया है कि सम्यग्दर्शन मोक्षका मूल है । सम्यग्दर्शन निश्चय और व्यवहार नयसे दो प्रकार है। सप्तव्यसन, सप्तभय और शंकादिक दोषोंसे रहित, सांसारिक अथवा शारीरिक भोगोंसे विरक्त और निःशंकित आदि अष्ट मूलगुण सहित पंच परमेष्ठिमें भक्तिभाव रखना सम्यग्दर्शन है।
जो विचारशील भव्यात्मा अपने आत्मिक शुद्ध स्वभावमें अनुरक्त और चैतन्य तथा पौद्गलिक परपदार्थोके स्नेहरूप अशुभ परिणामोंसे विरक्त होता है; जिनेन्द्रदेव, निग्रंथ गुरु और दयामय धर्ममें भक्तिपूर्वक श्रद्धा भाव रखता है; वह संसारके समस्त दुःखोंसे रहित सम्यग्दृष्टि है। दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास, व्रत और मुनिदीक्षा सम्यग्दर्शन होनेपर ही मोक्षमार्गके कारण हैं। विना सम्यग्दर्शनके यह सब क्रियायें व्यर्थ हैं।