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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य |
(१४) शील प्राभृत ।
इस ४० गाथामय रचना में आचार्यवरने यह वर्णन किया है कि यद्यपि शीलका अर्थ यथार्थ चारित्र और विशेषरूप से ब्रह्मचर्यका पालन करना है, परन्तु ज्ञान और ब्रह्मचर्यमें कोई भेद नहीं है । विना शीलके इन्द्रियोंके विषय ज्ञान गुणका नाश करते हैं, विषय कपायसे ज्ञान अज्ञानरूप होजाता है ।
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जतक जीव विषयोंके वशीभृत रहता है उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती । अतः चारित्र रहित ज्ञान, श्रद्धान रहित लिंग और संयम रहित तप निरर्थक हैं ।
सुतरां चारित्र सहित ज्ञान, श्रद्धान पूर्ण लिंग और संयम मय -तप ही फलदायक है |
निजपरका विवेक रखते हुये भी जो मनुष्य विषयभावमें आसक्त रहते हैं, संसार - भ्रमण करते हैं और जो विपयोंसे विरक्त होकर आत्मभाव में लीन होते हैं, वे आवागमनसे मुक्त होजाते हैं ।
यदि कोई विवेकी पुरुष अपने ज्ञानका गर्व करके विषय में आनंद मानता है तो वह उसके ज्ञानका नहीं उसकी बुद्धिका दोष है। सम्यग्ज्ञान और दर्शन युक्त तपश्चरण ही सम्यक्चारित्र है । उसीसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है । शील और ज्ञान मंडित पुरुषकी "देव भी प्रशंसा करते हैं, वह अकुलीन, कुरूप एवं वृद्ध होनेपर भी 'उत्तम है। उसका जीवन सफल है। जीवदया, इन्द्रियदमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, तत्वश्रद्धान, निजपर विवेक और तपोवृत्ति - यह सब शीलका परिवार है।