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________________ བགཔ་ད་ ་པ ་ན་་ ན་ ན'ག་; vའ་དཝ་ད་ དབའ་་བ་ ད་ ཧ:་ ༥ ནལ ७२] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ।। जिन लिंग अर्थात् नग्न मुद्रा धारण कर भावलिंग ( आंतरिक भावोंकी शुद्धि ) की उपेक्षा या अवहेलना करनेवाले मुनि, जिनकी बुद्धि पाप कृतियोंमें मोहित है नारदवेषी हैं । मुनिका रूप ग्रहण करके नाचने, गाने, बजाने आदि क्रियायें करनेवाले, अभिमान, विवाह, कलह, द्यतक्रीडा, कुशीलसेवन करनेवाले, रत्नत्रय धारणकर आर्तध्यान में रहनेवाले, तप संयम नियमादि नित्यकर्म करनेमें कष्ट या आलस्य माननेवाले, विषयभोगकी पांछा करनेवाले, प्रमाद निद्रा आदिमें रत रहनेवाले, कषायभाव रखनेवाले, अदत्त दान लेनेवाले, परनिंदा या निज प्रशंसा करनेवाले, नारीसमूहसे प्रीति माननेवाले, सजनोंको दोष लंगानेवाले, गृहस्थोंसे अधिक ममत्व रखनेवाले, गुरुजनोंकी विनयमें शिथिल रहनेबाले, मुनिवेषको लजाते और साधुव्रतको कलंकित करते हैं। ऐसे बाह्य लिंगधारी मुनि यदि सच्चे संयमी साधुओंकी संगतिमें भी रहें, तो भी भावलिंगसे शून्य होनेके कारण वे पशु समान अज्ञानी नरक निगोदके पात्र हैं। तात्पर्य यह है कि नग्नमुद्रा अर्थात् मुनिवेष बाह्यरूपसे धारण करलेना कुछ कार्यकारी नहीं । भावोंमें शुद्धता और लिंगयोग (वेषोचित या वेषानुकूल) चारित्रमें स्थिरता हुये बिना जिनमुद्रा (यथाजात अवस्था) ग्रहण कर लेना आत्मवंचना और भक्त जनोंको मायाचारसे ठगना है । ऐसा स्वांगी मुनि न अपना ही आत्मकल्याण करता है न अपने वेषपूजक भक्तोंको ही सन्मार्गपर लासकता है। और वह अपने इस मायावी व्यवहारसे अंततः नरकगतिको प्राप्त होता है।
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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