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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य
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सुपात्रोंको दान देना, देव, शास्त्र, गुरुकी पूजा करना गृहस्थोंका मुख्य धर्म है। आत्मध्यान और शास्त्र स्वाध्याय मुनियोंके लिये अनिवार्य कर्म है ।
जो गृहस्थ दानपूजा नहीं करता और न भोग ही नीतिपूर्वक भोगता है वह बहिरात्मा है। गृहस्थके धनकी शोभा दान है। जिसप्रकार कृपक उपजाऊ खेतमें यत्नपूर्वक उत्तम बीज बोकर वांछित फल प्राप्त करता है उसी प्रकार उत्तम पात्रको विधिपूर्वक दान देनेसे सद्गृहस्थको भी इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी सुखकी प्राप्ति होती है ।
उत्तम कुल, सुन्दर स्वरूप, शुभ लक्षण, श्रेष्ठ बुद्धि, निर्दोष शिक्षा, शुभ नाम, धन धान्य, पुत्र कलत्र, स्वजन परिवार, सुखसंपत्ति यश सन्मान, आदि समस्त भोगोपभोग वस्तुयें सम्यक्दर्शनके प्रभाव से ही प्राप्त होती हैं। जंत्र मंत्रकी सिद्धि या लोक प्रतिष्ठा के लक्ष्यसे दान पुण्य करना निरर्थक है । जो मनुष्य दान, पूजा, शील, व्रत, मूलगुण, उत्तरगुण आदि चारित्रसे विमुख है और जिसको कार्याकार्य, हिताहित, तत्वातत्व, धर्माधर्म, पुण्य पाप, योग्यायोग्य, हेयोपादेय, नित्यानित्य, सत्यासत्य, बंध मोक्षका विवेक नहीं है उसका उत्तमसे उत्तम ज्ञान तथा उच्चसे उच्च चारित्र भी सम्यक्रूप नहीं होता ।
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विषय कपाय अत्रत आदि भावोंसे अशुभ कर्मोंका बंध होता है जो दुःखदायी है | तत्वविचार, और वीतरागभाव शुभकर्मके कारण सुख देनेवाले हैं। मिथ्यात्व और मोह त्यागे विना जपतप आदि सबव्यर्थ हैं । मिथ्यादृष्टिके लिये जिनलिंग धारण करना भी निष्फल है। गुरुभक्ति के विना ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती । आत्मज्ञान विना उत्तम