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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । [६३ किसी अधिक गुणवान साधु या आचार्यके आनेपर विनयभावसे विनम्र खुश होकर उसका सत्कार करना चाहिये। कदाचारी साधु और जनताकी संगतसे बचना चाहिये । अपने समान या अधिक गुणवान विद्वानों और साधुओंके साथ रहनेका प्रयत्न लाभदायक है। अर्हतावस्थाका ध्यान करनेसे, सर्वज्ञप्रणीत मार्गके अनुगामियोंसे प्रेमभाव प्रकट करनेसे, सिद्धान्तका प्रचार करनेसे, शिप्योंको शिक्षा देनेसे, साधुओंको सहायता देनेसे, जनताका कल्याण करनेसे, वैय्याव्रत करनेसे शुभोपयोग होता है। शुद्धोपयोगी साधु प्रत्येक वस्तुको विवेकपूर्ण ग्रहण करता है। बाह्याभ्यंतर परिग्रहके ममत्वभावका और इन्द्रिय भोगोंकी इच्छाका परित्याग कर देता है। जो साधु अनुचित चारित्रको छोड़कर वस्तु स्वभावका विवेक प्राप्त कर लेता है, पूर्ण शांतभाव धारण कर तपस्यामें लीन हो जाता है वही शीघ्र निर्वाण लाभ करता है और सिद्ध परमेष्ठिकी परम शुद्धावस्थाको प्राप्त हो जाता है जो अनंत और अविनाशी है। (७) दर्शन प्राभृतं । इसमें ३६ गाथायें हैं जिनके द्वारा सम्यग्दर्शनका महत्व वर्णन किया है । सामान्यतः इसका अर्थ जिनेन्द्र भगवान उपदिष्ट सिद्धांतका दृढ़ श्रद्धान करना तथा आत्माके स्वाभाविक गुणोंको यथार्थ, रूपमें जान लेना है । यही धर्मका आधार और मुक्तिमार्गका सुनिश्चित साधन है, इसके विना ज्ञान, चारित्र और तपका कोई मूल्य नहीं, यही पुण्यरूपी वृक्षकी- जड़ है। और इसीसे कर्ममलका क्षय
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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