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________________ ན་ཨ་་ ་་ ་ ནག :་ད་ ད་་ དས་ ་བ་འ ་་ འབ་ ན་འབ ན་ ་ས ་ ་ཨསད་འགག ६२] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । करना, छहों कायके जीवोंकी करुणा पालना, शरीरतकसे मोह त्यागना, व्रतोपवास आदि करना बाह्य चारित्र है । परन्तु स्त्रियोंके लिये भी उनकी अयोग्यताके कारण उनको कुछ वस्त्र धारण किये रहनेकी आज्ञा है (इसकी आवश्यकता भी है) वे आर्यिका कहलाती हैं, मुनि और आर्यिका दोनोंके लिये निःकषाय होना और २८ मूलगुण धारण करना परमावश्यक है। यदि व्रत पालन करनेमें उनसे कोई त्रुटि होजाय तो आचार्य (गुरु) से स्पष्ट कह देना चाहिये । प्रतिसमय उन्हें सावधान और निष्प्रमाद रहना चाहिये । आहार या उपवास, व्हरने या घूमने, अकेले या संगतमें रहने, विलकुल मौनवृत्ति या गप्प हांकने आदि किसी एक विशेष. क्रिया में अनुराग नहीं होना चाहिये । इस प्रकारका भेद भी मोक्षमार्गमें बाधक है। साधु इष्ट और अनिष्ट दोनों में समभाव धारण करता है, उसे इतना परिग्रह रखना पर्याप्त होता है,. जो.साधुवृत्तिके निर्वाहके लिये आवश्यक हो, और जिसके लिये किसी प्रकार पाप क्रिया. न करनी पड़े। नम शरीर आचार्योंके प्रवचन (शास्त्र ), पीछी और कमण्डलु यही परिग्रह जरूरी है । अन्य परिग्रह : रखनेमें मोह और ममत्वभाव अवश्य उत्पन्न होंगे और चारित्रमें बाधा डालेंगे। ममत्व तो साधुको शरीरसे भी नहीं रखना चाहिये। मुनिको शास्त्राध्ययन आवश्यक है, जिससे उसे तत्वज्ञान और निजपरका विवेक. होसके । इसीसे उसे ममत्वत्याग, आत्मध्यान, संयमपालन, आदिकी -शक्ति प्राप्त होसकती है। दिनमें एकवार भिक्षावृत्तिसे उसे सूर्यास्तसे, 'पूर्व-शुद्धाहार पाणि-पात्रमें ग्रहण करना योग्य है।
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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