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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। [६१ कारण स्वकृत कर्मों का फल भोगता और नवीन कर्म उपार्जन करत है । इसीसे विभिन्न शरीर धारण करता है । आत्मा चैतन्यस्वरूप है अशुद्ध चैतन्यस्वरूप सराग उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार हैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप वीतराग उपयोग शुद्धरूप ही होता है ।
जिस समय आत्माका विषय कपाययुक्त अशुभोपयोग होता है तब पापरूप वर्गणाओंका बंध आत्मासे बंधता है और जब उनका उपयोग दान, पूजा, तपादि क्रियाओंमें होता है तो इस शुभोपयोगसे पुण्यरूप कर्मवर्गणाओंका बंध होता है । कर्मवर्गणाओंमें जो परिवर्तन होता है निश्चयनयसे आत्मा उसका कर्ता नहीं बल्कि सूक्ष्म या स्थूल पौद्गलिक परमाणु कर्मानुसार आत्मासे लगते हैं वही उसके कारण हैं : आत्मा इन्द्रियविषयोंसे रहित है। विदेह आत्मा स्थूल द्रव्य नहीं है तो भी स्थूल द्रव्योंको जानता है। आत्मामें कार्माण वर्गणाओंके समाविष्ट हो जानेके लिये अवगाहना शक्ति है। बंधकालके अनुसार वे वर्गणायें आत्मासे लगी रहती हैं, नियत समय व्यतीत हो जानेपर वे स्वयं नष्ट हो जाती हैं। आत्मा अपने गुणावगुणोंके विकासका स्वयं कारण है। आत्माका अपने स्वरूपमें तल्लीन होना तभी संभव है जब वह समस्त रागद्वेषरूप भावोंसे नितांत विरक्त होजाय, आत्मा निज स्वभावसे ज्ञायक है और समस्त वस्तुओंके साथ उसका ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है, परन्तु किसी वस्तु के साथ उसका स्वामित्व सम्बंध नहीं है।
साधु चारित्र वाह्यास्यंतर' भेदसे दो प्रकार हैं-मोक्ष लाभके प्रयोजनसे पापोंसे विरक्त होना और शुद्ध भावनाओंसे आत्मध्यानमें लीन होजाना आभ्यंतर चारित्र है। नग्नमुद्रा धारना, पंचमुष्टि केशलोंचा