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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य |
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हजार शीलके भेद कहकर इनका विस्तृत निरूपण किया है । बारहवें पर्याप्ति अधिकार में शरीरकी रचना, इन्द्रिय, संस्थान, योनि, आयु, आयु और देहका परिमाण, योग, वैद, लेश्या, प्रविचार. उपपाद, उद्वर्तन, जीवस्थानादि, स्थान, कुल, अल्प बहुत्व, चतुर्विधबंध, इन सूत्रोंका कथन है । आहार निप्पत्ति, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा, मन, इनकी पर्याप्तिरूप छः मेद हैं । पृथ्वीकायादि एकेंद्रिय जीवोंके आदिकी चार, और इंद्रियसे असैनी पंचेंद्रिय के पांच तथा संज्ञी पंचेंद्रिय जीवके छहों पर्याप्ति होती हैं ।
फिर आचार्यवरने वीस सूत्रोंकी भेदोपभेद सहित बृहद् व्याख्या की है और अन्तमें अष्ट कर्मोंके बंधादिका प्रतिद्ध किया है ।
मोतीर
( ४ ) समयसार ।
इस ग्रंथ में आचार्यवरने ४१४ गाथाओं में आत्म- द्रव्य आत्मा के अंतिम ध्येयका स्पष्ट वर्णन किया है । इाथाओं को प्रकरणवश नौ अधिकारों में निम्नप्रकार विभक्त किया है।
जीवाजीवाधिकार ६८ गाथा, कर्तृत्व कर्म ७६ गाथा. पुण्य पाप १९ गाथा, आश्रत्र १७ गाथा, संवर १२ गाथा, निर्जरा ४४ गाथा, बन्ध ५० गाथा, मोक्ष २० गाथा, सर्व विशुद्ध ज्ञान १०८ गाथा.!
जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप निज स्वभावमें तिष्ठे उसे समय कहते हैं और जो पुद्गल कर्म प्रदेशों में तिष्ठे वह पर समय कहलाता है। अर्थात् जो आत्मा अपने ही गुण पर्याय में परिणमें वह समय है ।· जीव पर समयरूप होकर अर्थात् इन्द्रियोंके विषयोंको सुख जानकर