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________________ ५०] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । आदि सहित निरुपण किया है और तदनुकूल मुनियोंको आचरण करनेका साग्रह आदेश किया है। दशवे समयसाराधिकारमें पूर्वाचार्यों द्वारा कथित द्वादशांग परम तत्वको समयसार बताकर आचार्यवर कहते हैं कि उपसर्ग सहनको समर्थ, सांसारिक भोगोंसे विरक्त, वैराग्य भावोंसे युक्त मुनि थोडा वहुत भी शानाध्ययन करे तो भी कर्मोका नाश कर देता है । सुतरां चैराग्य रहित साधु समस्त वांग्मयका पारगामी होनेपर भी कोका क्षय नहीं कर सकता। सम्यक्चारित्र पालनेवाला, भिक्षा-भोजन अल्प मात्रामें करनेवाला, कम बोलनेवाला, दुःखोंको धैर्य से सहनेवाला, निद्राको जीतनेवाला, मैत्रीभावका सदैव चिन्तवन और वर्तन करनेचाला, वैराग्यभाव रखनेवाला, ज्ञान दर्शनके अतिरिक्त किसी पदार्थमें ममत्व न रखनेवाला, शुद्ध ध्यानमें एकाग्रचित्त रहनेवाला, आरम्भ न करनेवाला, कपाय और परिग्रहको विल्कुल त्याग देनेवाला, आत्महितमें उद्यम करनेवाला, थोड़ा शास्त्र पढ़नेपर भी दशपूर्वके पाठी शिथिलाचारी मुनिसे अधिक शीघ्र ध्येयकी प्राप्ति कर लेता है। षडावश्यक क्रिया रहित, ज्ञान संयम रहित, जिन मुद्रा तथा सम्यक्त्व रहित, तप धारण करनेवाले मुनिकी सब क्रिया निष्फल रहती हैं। अतः साधुओंको यत्नपूर्वक सम्यक्चारित्र पालन करना चाहिये। इसीसे.. नवीन कर्मवंधका संवर और संचित्त कर्मोंकी निर्जरा होसकती है। - “म्यारहवें शील गुणाधिकारमें तीन योग (मन वचन काय); तीन कारण (प्रवृत्ति), चारं संज्ञा, पांच इन्द्रिय, देश काय' ('पृथ्वी:आदि ); दश धर्म (क्षेमा आदि), इनके परस्पर गुणा करनेसे.अठारह।
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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