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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । CHI शुभाशुभ कर्मबन्धके फल अनादिकालसे भोगता है सो इनका अनुभव तो सुलभ है, परन्तु इसने सर्व प्रकार के परद्रव्यों से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूपका कभी अनुभव नहीं किया है, इसलिये यह दुर्लभ है । आत्मा ज्ञायकरूप है। ज्ञायक भाव निश्चयनयसे एकरूप है और व्यवहारमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन भेदरूप है । ५२ ] POLIT „„„„„ जीवादि नव तत्वोंको निश्चयनयसे जान लेना तथा तद्रूप अनुभव करना ही मोक्षप्राप्तिका मार्ग है । कर्म नोकर्म पौगलिक पदार्थों में जीवकी तन्मयता तथा सचित्ताचित्त अन्य पदार्थोंमें निजताका भाक रखना अज्ञानता है । इससे भिन्न आत्माको शुद्ध ज्ञानमय अनुभव करना और अपने चैतन्यस्वरूपमें ही आपा मानना सम्यक्ज्ञान है । व्यवहारनयसे तीर्थंकरादिकी देहकी पूजा होती है, परन्तु निश्चयनयसे उनके आत्मीक गुणोंकी ही पूजा स्तुति की जाती है, जो उनके देहकी ही शांत मुद्रा और वीतराग आकृतिसे प्रत्यक्ष प्रगट होते हैं । विषय कषाय मोह आदि परभावोंके परित्यागसे ही आत्मा के निज स्वभावका साक्षात् बोध होजाता है यही सम्यक् चारित्र है । क्रोधादिक भावोंसे आश्रव और आश्रवसे कर्मबन्ध होता है । पुनः वही कर्मबन्ध उदय होकर कोधादिक भावोंको उपजाता है, जिससे फिर बन्ध होता है और उदयमें आता है। इस प्रकार कर्मबन्धके प्रवाहको आत्माने अभीतक नहीं जाना, इसीसे वह अनादिकाल से संसार में भ्रमण कर जन्म मरणके दुःख भोग रहा है । राग, द्वेष, सुख, दुःखरूप भाव जो अन्तरङ्गमें उत्पन्न होते हैं वे कमौके परिणाम हैं और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द; संस्थान, स्थूल
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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