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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । [४३ निर्मल होकर अपनी स्वाभाविक अवस्थामें स्थित होता है तो स्वतः अविनाशी आनंदका केन्द्रस्थल हो जाता है । आस्रव । मिथ्यात्व, अवत, विषय, कषाय आदि कुत्सितभाव और तदनुसार कृतियां कर्माश्रवके कारण हैं, जिनके फलस्वरूप आत्माको जगतभ्रमण करना पड़ता है। सम्बर। शान्तिमय और वीतरागतापूर्ण धर्माचरणका पालन करनेसे ही कर्मोका आश्रव रुक जाता है। निर्जरा। . पूर्वसंचित कर्मोंकी निर्जरा सविपाक (फल देकर कोका क्षय) और अविपाक (विना फल दिये कर्ममलका नष्ट होना ) दो प्रकारकी होती है। इस विषयमें आचार्यवरने गृहस्थोंकी ११ प्रतिमाओं (श्रेणियों) और त्यागियोंके १० धर्मोंका वर्णन करते हुए अंतरंग तथा बहिरंग परिग्रह ( ममत्व भाव ) के परित्याग कर देने तथा ज्ञानस्वरूप आत्माके गुणोंका निरन्तर चिंतन करते रहनेका आदेश किया है जो निर्जराका मुख्य कारण है। बोध । मनुष्यकी विभिन्न संसारी अवस्थाओंकी तुलना करते हुये श्रीवर्यने. आत्मबोधकी प्राप्तिको दुर्लभ निर्दिष्ट किया है और उसे प्राप्त करनेके लिये पूर्ण प्रयत करनेकी प्रेरणा की है। आत्मज्ञानसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है। . .
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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