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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य |
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एकत्व |
अकेला आत्मा ही स्वकृत कर्मोंके फलको स्वयं भोगता है, पुत्र कलत्र मित्रादि कोई भी सुखदुःखमें इसका साथी नहीं है ।
अन्यत्व |
समस्त कुटुम्ब परिवार मित्रसेवकादि तो क्या, अपना शरीर भी आत्मासे साक्षात् भिन्न परपदार्थ है । दर्शन ज्ञानमय आत्मा ही सबसे पृथक् अपनी सत्ता में सदैव विराजमान है ।
संसार ।
मोह और मिथ्यात्वके वशीभूत हुआ आत्मा संसारमें अनेक प्रकारके कष्ट सहन करता है। कर्मजनित दुःखोंसे छूट जाने पर ही संसारके परिभ्रमणसे आत्मा छूटता है, अन्यथा नहीं ।
लोक ।
यह लोक जिसमें कर्मोंके फलानुसार आत्मा अनादिकालसे विभिन्न' पर्यायोंमें परिभ्रमण कर रहा है, ऊर्ध्व लोक (स्वर्ग), मध्यलोक (इहलोक ). और अधोलोक (नरक) तीन भागों में विभक्त है । शुभाशुभ कर्मोके फलानुसार आत्मा इन्हीं तीन लोकोंमें भ्रमण करता हुआ जन्ममरणके. बंधन में है, परन्तु जब कर्मोंको नष्ट करके शुद्ध ज्ञानको प्राप्त होजाता है तो त्रिलोकवर्ती आवागमन के चक्र से सदा के लिये छूट जाता है | अशुचित्व |
इस संसारकी प्रत्येक वस्तु अपवित्र और अशुद्ध है केवल एक. आत्मद्रव्य ही स्वभावतः शुद्ध और पवित्र पदार्थ है परन्तु कर्ममलसे लिप्त हुआ विकृत अवस्थामें है । जब वह कर्ममलसे स्वच्छ और