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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य।
धमे।
" आत्मस्वभावः धर्म" के अनुसार अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख आत्माका स्वभाव, गुण तथा धर्म है। इसीके प्राप्त कर लेनेपर आत्मा निर्विकार और निर्मल निज अवस्थामें स्थित होता है और संसारबंधनसे सदाके लिये मुक्त होकर अविनाशी आनंदको प्राप्त हो जाता है। यही आत्माका अंतिम ध्येय है। अन्तमें आचार्यवरने प्रकट किया है कि इस रचना द्वारा मुझ कुन्दकुन्दाचार्यने व्यवहार और निश्चय दृष्टिकोण (नय ) से ऐसा उपदेश किया है।
(२) दशभक्ति संग्रह। (१) तीर्थकर भक्ति-आठ गाथाओंमें नाम क्रमसे २४ तीर्थकरोंकी स्तुति की गई है।
(२) सिद्ध भक्ति-९ गाथाओंमें सिद्धोंके भेद, निवासस्थान, अविनाशी सुख, और सिद्धपद प्राप्तिके साधनोंका उल्लेख है।
(३) श्रुतभक्ति-११ गाथाओं में है। पहली गाथामें सिद्धोंको नमस्कार करके अगली गाथाओंमें द्वादशांग, १२वें दृष्टिवाद अंगके पांच भेद, फिर १४ पूर्वोके नामादि और भेदोंका वर्णन है।
(४) चारित्र भक्ति-१० गाथा अनुष्टुप छंदकी हैं। वर्धमानस्वामीको नमस्कार करके यह कथन किया है कि तीर्थकर भगवानने प्राणीमात्रके कल्याणार्थ, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात, ऐसे पांच प्रकार चारित्रका उपदेश दिया है। फिर साधुओंके मूलगुण और उत्तरगुण वर्णन करके उन्हें इनका निर्दोष और निरतिचार पालन करनेका आदेश किया है।