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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। [३१ पर विदेहक्षेत्रकी दुर्गम यात्रा कर लेना एक साधारण कार्य ही है। ऐसे ऋद्धिधारियों के लिये सुदूरवर्ती क्षेत्रों में स्वयं या किसी आकाशगामी व्यक्तिके साथ जानेके लिये मार्गकी विषमता और दुर्गमता तनिक भी बाधक नहीं होती।
ग्रन्थ निर्माण । हमारे चरित्रनायक आचार्यने अद्वितीय रूपसे जैन धर्मका सर्वत्र प्रचार किया था। ५२ वर्षके दीर्घ आचार्यकालमें धर्मध्यान और संयम पालनके अतिरिक्त सिद्धान्त एवं आचार सम्बन्धी कितनी ही महत्वपूर्ण रचनायें की। यद्यपि किसी प्रतिमें उसके रचयिताका नामोल्लेख नहीं है, तो भी यह प्रसिद्ध है कि कर्मप्राभृत (पखण्डागम ) के प्रथम तीन खण्डोंकी १२ हजार श्लोक परिमाण " परिकर्म " नामक टीका लिखी। मुनियोंके आचार सम्बन्धी "मूलाचार" शास्त्रका प्रणयन किया । " दशभक्ति संग्रह " की रचना की, और इनके अतिरिक्त बारस अणुवेस्खा ( द्वादश अनुप्रेक्षा ) तथा ८४ प्राभृतोंका निर्माण किया।
इन ८४ प्राभृतोंके अध्ययनकी तो बात ही क्या, हमारे दुर्भाग्य और प्रमादसे अब उनमें से बहुतसोंका तो अस्तित्व भी नष्ट होचुका है। इस समय केवल निम्नोल्लिखित प्राभूत ही प्राप्य हैं
(१) समयसार, (२) पञ्चास्तिकाय, (३) प्रवचनसार, (४) दर्शनप्राभृत, (५) सूत्र प्राभृत, (६) चारित्र प्राभृत, (७) बोध प्रा त, (८) भाव प्राभृत, (९ मोक्ष प्राभृत, (१.) लिंग प्राभृत, (११) शील प्राभृत, (१२) रयणसार, (१३) नियमसार ।