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३०] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। .... . . ....... . .... ... ... .
तस्यन्वये भूविदिते बभूव यः, पद्मनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यः, सत्संयमादुद्गतचारणार्द्धिः।।
शि० ले० नं०४०॥ श्री पद्मनन्दीस्य न वद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चारित्रसंजातसुचारणार्द्धिः ॥शि.४२॥
इन लेखोंसे स्पष्ट विदित है कि आचार्यवर तात्कालिक भाषाके प्रांजल विद्वान, सिद्धान्त शास्त्रके पारंगत, सम्यक श्रद्धानी, पूर्ण सयंमी, दुर्द्धर तपस्वी, प्रथमाभिधानी और चारणऋद्धि (आकाशगामिनी विद्या) के धारी थे।
वि० सं० ११८१ के श्रवणवेल्गुल शिलालेखमें भी यह लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दस्वामी चारणाचार्योके करकमलोंकी मधुमक्षिका थे, जिसका सरल अर्थ यह है कि यह चारणऋद्धिधारियोंकी संगतिमें अधिक रहते थे, और यह तभी संभव है कि जब वह स्वयं भी चारणऋधारी हों, अतः यह निश्चित है कि वे स्वयं आकाशगामी थे।
षट्खण्डागम एवं चूर्णिका और वृत्ति सहित कषायप्राभृतका अध्ययन करना और विदेहक्षेत्रमें विद्यमान तीर्थकरसे ज्ञान प्राप्त करना इन आचार्यवरकी सुविज्ञता, सुयोग्यता और सच्चारित्रताके कारण उल्लिखित किये गये हैं, सो ठीक ही है। वर्तमान पौलिक विज्ञानके युगमें आत्मबल द्वारा आश्चर्यकारी ऋद्धियोंके चमत्कारोंको कोई भले ही असंभव समझे, किन्तु आध्यत्मिक विज्ञानके उत्कर्ष समयमें ऐसी असाधारण घटनाओंकी वास्तविकता तनिक भी अविश्वसनीय नहीं -समझी जाती थी । चारणऋद्धि जैसी असाधारण शक्तिके प्राप्त होजाने