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तृतीय अध्याय
(१) नवग्स : यह कवि की प्रथम रचना है। उने अापने १४ वर्ष की ही आयु में सं० १६५७ में लिखा था। इसमें एक हजार दोहा चौपाइयों में नव रसों का, विशेष रूप से शृङ्गार रस का, वर्णन किया गया था। बनारसीदास ने इसे सं० १६६२ में गोमती नदी में फेंक दिया :--
पोथी एक बनाई नई, मित हजार दोहा चौपई।। १७८ ॥ तामें नवरस रचना लिखी, पै विसेस बरनन आसिग्नी ।। एसे कुवि वनारसी भए, मिथ्या ग्रन्थ बनार गए। १७६ ॥
अकथानक, ०१७) (२) नाममाला' : बनारसीदास की उपलब्ध रचनाओं में यह प्रथम है। यह कवि का मौलिक ग्रन्थ न होकर धनंजय कृत 'संस्कृत नाममाला' का हिन्दी पद्य में अनुवाद है। इसकी रचना नं० १६७० में हुई थी। यह एक प्रकार का कोप ग्रन्थ है, जिसमें एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाचो दिये गये हैं। जेसे :आकाश : खं विहाय अम्बर गगन, अन्तरिक्ष जगधाम ।
व्योम वियत नभ मेघपथ. ये अकाश के नाम । बुद्धि : पुस्तक धिपना सेमुखो, धी मेधा नति वुद्धि ।
मुरति मनीषा चेतना, आशय अश विशुद्धि । (३) नाटकसमयसार : 'समयसार' प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा लिखित प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है। यह जैनों के लिए धार्मिक ग्रन्थ के समान पूज्य है। जैन विद्वानों द्वारा इसकी अनेक व्याख्यायें और टीकायें प्रस्तुत की गई हैं, जिनमें आचार्य अमृतचन्द्र की संस्कृत टीका और पाण्डे राजमल की हिन्दी गद्य में बाल वोधिनी टीका' विशेष रूप से उल्लेखनीय है । बनारसीदास ने इनी 'समयमार' का हिन्दी पद्य में 'नाटक समयसार' नाम से अनुवाद किया है। 'समयमार' के पूर्व 'नाटक' शब्द जुड़ने के कारण हिन्दी के कतिपय विद्वानों को यह भ्रम हो गया कि यह मध्यकाल में बनारसीदास द्वारा रचित हिन्दी का एक मौलिक नाटक है। वस्तुतः 'समय' शब्द का अर्थ है द्रव्य का अपने स्वभाव व गुण पर्याय में स्थिर रहना। द्रव्य छः होते हैं। निश्चयनय से सभी द्रव्य अपने स्वरूप में अवस्थित रहने के कारण 'समय' कहलाते हैं। पडद्रव्यों में प्रात्म-द्रव्य श्रेष्ठ होने के कारण 'सार' कहलाता है। इस प्रकार आत्मा ही 'समयसार' हुआ। 'नाटक' शब्द की व्याख्या कवि ने स्वयं इस प्रकार की है :पूर्व बन्ध नासे सौ तौ संगीत कला प्रकासै,
नव बन्ध सन्धि ताल तोरत उछारि के । निसंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरि,
समता अलापचारी करै स्वर भरि कै॥
१. वीर सेवा मन्दिर सरसावा से प्रकाशित । २ देखिए, डा० दशरथ अोझा--हिन्दी नाटक उद्भव और विकास,
पृ० १५६ ।