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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
कर्मप्रकृति विधान है जो संवत १७०० में लिखी गई थी। इसके बाद वह कब तक जीवित रहे, यह नहीं कहा जा सकता। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह प्रचलित है कि जब वह मरणशय्या पर थे, उनका कंठ अवरुद्ध हो गया था। उनके कंठावरोध से लोग समझे कि बनारसीदास के प्राण मोह में फंसे हैं। इसे सुनकर बनारसीदास ने संकेत से एक पट्टिका मंगवाई और उस पर यह छन्द लिख दिया :
ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना। प्रगट्यो रूप स्वरूप, अंनत सुमोहना ॥ जापर जै को अंत, सत्य कर मानना। चले बनारसीदास, फेरि नहिं आवना॥
मन चन्द 'बत्मल' - जैन कवियों का इतिहास, पृ०४१) इस किवदन्ती में कितना सत्य है, कहा नहीं जा सकता। वास्तव में संतों, महापुरुषों और महाकवियों के विषय में नाना प्रकार की कथाएँ गढ़ ली जाती हैं। कबीर, मुर, तुलमी आदि के सम्बन्ध में न जाने कितनी किंवदन्तियाँ प्रचलित है। लेकिन उन में वास्तविकता कितनी है, यह उनके पाठक जानते हैं।
रचनाएँ:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में बनारसीदास लिखित बनारसी विलास, नाटक समयसार, नाममाला, अर्धकथानक, बनारसी पद्धति, मोक्षपदी, ध्र ववंदना, कल्याण मंदिर भाषा, वेद निर्णय पंचासिका और मारगन विद्या नामक पुस्तकों का उल्लेख किया है। इनमें से कल्याण मंदिर भाषा और वेद निर्णय पंचासिका स्वतंत्र ग्रन्थ न होकर 'बनारसी विलास' में संग्रहीत हैं। 'कल्याण मंदिर' बनारसीदास की मौलिक कृति भी नहीं है। वह कुमुदचन्द्र के संस्कृत ग्रंथ का भापानवाद है। 'मोक्षपदी और मारगना विद्या' भी क्रमशः 'ममाडी' और 'मार्गना विधान' नाम से 'बनारसी विलास' में संग्रहीत है। 'बनारसी पद्धति' और 'ध्र ववंदना' नामक रचनाएँ प्राप्त नहीं हैं, यद्यपि 'बनारसी पद्धति' का उल्लेख कामता प्रसाद जैन ने भी किया है। इनके अतिरिक्त बनारसी दास की कतिपय अना रचनामों का भी पता चलता है। सभी का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
१. मंबनमत्रह मो ममय, फागन माम बमंत । अन शशवमर ममी, तब वह भयो मिद्धत । ७५३!
(बनारसी विलास, पृ० १२४) २. अचाई म चन्द्र शुका-हिन्दी माहित्य का इतिहाम, पृ० २०६ ।
बनानमः विना म.१० १२४ व ०६१ ४. बनारमी विकास, १०.३२ और १०३। ५. हिन्दी न माहिम का इतिहम, पृ. १२१ ।