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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
न्यकाल:
बनारसीदास का जन्म माघ सुदी ११ वि० सं० १६४३ को जौनपुर नगर में हुआ था। आपके पिता खरगसेन ने आपका नाम 'विक्रमाजीत' रखा। किन्तु बाद में एक पुजारी के द्वारा आपका नाम 'बनारसी दास' कर दिया गया। गल्यकाल में ही आपकी प्रखर बुद्धि के प्रमाण मिलने लगे थे। आठ वर्ष की अवस्था में पांडे रूपचन्द के शिष्य रूप में आपने अध्ययन प्रारम्भ कर दिया और अल्पकाल में ही नाममाला, ज्योतिषशास्त्र, अलंकार शास्त्र तथा अनेक धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया।
गार्हस्थ्य जीवन :
बनारसीदास का वैवाहिक जीवन आनन्दमय नहीं रहा। आपका प्रथम विवाह दस वर्ष की ही आयु में हो गया था, किन्तु कुछ वर्षों के बाद ही आपकी पत्नी का देहान्त हो गया। इसके बाद आपके क्रमश: दो विवाह और हुए। इन तीनों पत्नियों से नौ संतानों का जन्म हुआ, किन्तु सभी अल्पायु में ही काल कवलित होती गई। कवि को इस वज्रपात से कितना मानसिक क्लेश हुआ होगा, इसका अनुमान हम 'अर्धकथानक' की दो पंक्तियों से सहज ही लगा सकते है। उसने वैयक्तिक दुःख को मानों संसार की सामान्य विशेषता या क्षणभंगुरता में पर्यवसित करते हुए लिखा है :
नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोय । ज्यों तरुवर पतझार है, रहें ठूठ से दोय ॥६४३।।
(अर्ध०, पृ० ५६) बनारसीदास का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था, व्यापार जिसका पैतृक व्यवसाय था। अतएव आपको भी धनार्जन हेतु दूरस्थ स्थानों को, विशेष रूप से आगरा, जाना पड़ा। किन्तु इस क्षेत्र में विशेष अनुभव न होने के कारण आपको व्यापार में हानि ही हुई और कुछ ही दिनों में मूलधन भी समाप्त हो गया। आगरा में आप अनेक प्रकार के व्यक्तियों के सम्पर्क में आए। इनमें से कुछ तो विषयी, वासना प्रेमी और इन्द्रियलोलुप थे और कुछ विद्वान् अध्यात्म
१. संवत सोलह सो तैताल । माघ मास सित पक्ष रसाल ।। ८३ ।।
एकादशी बार रविनन्द । नखत रोहिणी बृष को चन्द ।। रोहिनि त्रितिय चरन अनुसार । खरगसेन घर सुत अवतार ।। ८४ ।। दीनो नाम विक्रमाजत । गावहिं कामिनि मंगल गीत ॥
(अर्धकथानक, पृ०६) - २. पाठ बरस को हौ बाल । विद्या पढन गयौ चटसाल ॥ गुरु पांडे सौ विद्या सिखे । अक्खर बाँचे लेखा लिखै ।। ८६ ॥
(अधकथानक, पृ० १०)