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तृतीय अध्याय
रस के रसिक और ऊंचे विचार वाले थे। आप पर दोनों का प्रभाव पड़ा। प्रथम प्रभाव विषय रमिकों का ही पड़ा और आपने शृगार रस की कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में एक हजार छन्दों का एक विशालकाय ग्रंथ 'नवरम' बना डाला, जिसमें शृगार की ही प्रधानता थी। कुछ समय पश्चात् जब आप अध्यात्म प्रेमियों के सम्पर्क में आए और आपको आत्मज्ञान हा, तो अपनी रचना से बड़ी घणा हो गई और एक दिन उस ग्रंथ को गोमती नदी में फेंक दिया। यद्यपि इसमें हिन्दी काव्य की भारी क्षति हुई तथापि यह घटना बनारसी दाम के जीवन में नए मोड़ की सूचना देती है। कवि ने स्वयम् स्वीकार किया है कि उस दिन से उसने 'आसिखी फासिखी" का परित्याग कर धर्म का मार्ग पकड़ा:
पोथी एक बनाई नई । मित हजार दोहा चौपई ।।१७८।। तामे नव रस रचना लिखी। पै विसेख वरनन आसिखी ।। ऐसे कुकवि बनारसी भए । मिथ्या ग्रन्थ बनाए नए ॥१७६||
एक दिवस मित्रन्ह के साथ | नौकृत पोथी लीन्ही हाथ ||२४|| नदी गोमती के विच आय । पुल के ऊपर बैठे जाय ।। बॉचै सब पोथी के बोल । तब मन में यह उठी कलोल ॥२६५।। एक मूठ जो बोले कोई । नरक जाइ दुःख देखै सोई॥ मैं तो कलपित वचन अनेक । कहे मूठ सब सांचु न एक ।।२६६।। कैसे बने हमारी बात । भई बुद्धि यह अकसमात ।। यहु कहि देखन लाग्यो नदी । पोथी डार दई ज्यों रदी ॥२६॥ हाइ हाइ करि बोले मीत । नदी अथाह महा भयभीत ।। तामे फैलि गए सब पत्र । फिरि कहु कौन कर एकत्र ॥२६॥
तिस दिन सौ वानारसी, करै धरम की चाह ॥ तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुल की राह ॥२७६।।
(अर्धकथानक, पृ० २५-२६) विद्वानों से सम्पर्क :
अब बनारसीदास विद्वानों और अध्यात्मप्रेमियों के सम्पर्क में पाए। उस समय आगरा जैन विद्वानों का केन्द्र था। वस्तुतः १७ वी १८ वीं शताब्दी में जैन कवियों और आचार्यो द्वारा जैन मत और दर्शन सम्बन्धी जितना कार्य किया गया है, उतना सम्भवत: किसी अन्य शताब्दी में नहीं। इन दो शताब्दियों में केवल आगरा में विद्यमान जैन विद्वानों में बनारसीदास, रुपचन्द, चतुर्भज, बैरागी, भगवतीदास, धर्मदास, कुंवरपाल, जग जीवन, भैया भगवतीदास, भूधरदास और द्यानतराय आदि का नाम विशेषतया उल्लेखनीय हैं। इनमें से प्रथम पाँच बनारसीदास के समकालीन और उनके अभिन्न मित्रथे, जिसका उल्लेख बनारसीदास ने अपने 'नाटक ममयमार' नामक ग्रन्थ में इस प्रकार किया है : ..