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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
लिखा है कि सांसारिक दुःव के निवारण के लिए वीरचन्द के शिष्य ने दोहा छन्द में यह काव्य लिखा :
'भव दुक्खह निविणएण, वीरचन्दसिस्सेण ।
भवियह पडिवोहण कया, दोहाकव्व मिसेण ॥४॥ इसके अतिरिक्त केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वे विक्रम को १३वीं शती में विद्यमान थे।
काव्य रूप, नामकरण तथा ग्रंथ का विषय :
काव्य का नाम 'दोहापाहुड' है और वह 'बारहखड़ी' पद्धति पर लिखा गया है। कवि ने 'बारह खडी' या 'बारह अक्खर' का उल्लेख दो दोहों में किया है । प्रारम्भ में जिनेश्वर की वंदना के बाद वह कहता है :
'बारह विउणा जिण णवमि, दिय बारह अक्खरक्क ॥ ॥ इसी प्रकार ३३३वें दोहे में लिखा है :
‘किय वारक्खम कक्क, सलक्खण दोहाहिं ।'
मध्यकाल में अनेक काव्य रूप जैसे शतक, बावनी, बत्तीसी, छत्तीसी, पचीमी. चौबीसी, अप्टोत्तरो आदि प्रचलित थे। उनमें एक 'बारहखड़ी' भी था। 'यारहखड़ी को बावनी' का विकसित काव्य रूप माना जा सकता है। ककहरा
और अखरावट भी इसी प्रकार का एक काव्य रूप होता है। बावनी काव्य की रचना नागरी वर्णमाला के आधार पर होती है। हिन्दी में स्वर और व्यंजन मिलाकर ५२ अक्षर होते हैं। इन बावन अक्षरों को नाद स्वरुप ब्रह्म की स्थिति का अंग मानकर इन्हें पवित्र अक्षर के रुप में प्रत्येक छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त किया जाता है। हिन्दी में इस प्रकार के लिखे गए बावनी काव्यों की संख्या बहुत अधिक है। केवल अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में ही लगभग २५-३० बावनी काव्यों की हस्तलिखित प्रतियाँ मुरक्षित हैं।
बारहखडी काव्य में प्रत्येक व्यंजन के सभी स्वर रूपों के आधार पर एकएक छंद की रचना होती है। इस प्रकार एक ही व्यंजन के दस या ग्यारह रूप (जैसे क, का, कि, की, कू, क, के, के, को, कौ. कं आदि ) बन जाते हैं। महदिण मूनि ने इमी पद्धति का प्रयोग किया है। इसीलिए उनके काव्य में दोहों की संख्या ३३४ या ३३५ हो गई। महयंदिण मूनि के अतिरिक्त और कवियों ने भी इस काव्य रूप को अपनाया। सं० १७६० में हिन्दी में कवि दत्त ने एक 'वारहखड़ी' की रचना की थी। लेकिन इसमें ७६ पद्य ही है। प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में किशोरी शरण लिखित 'बारहखड़ी' का उल्लेख किया है। इसका रचनाकाल सं० १७९७ है। सं० १८५३ में चेतन
१. अगरचन्द नाहटा -गजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज,
(चतुर्थ भाग) पु०६६। २. हिन्दी माहि-य का इतिहाम, पृ० ३४५।