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तृतीय अध्याय
'संवत् १६०२ वर्षे वैमाख सुदि १० तिथी रविवासरे नक्षत्र उत्तर फाल्गुने नक्षत्रे राजाधिराज माहि ग्रामराजे | नगर चंपावती मध्ये । श्री पार्श्वनाथ चैत्यालए || श्री मुलसिंधे नव्याम्नायेवताकार गणे सरस्वती गदे भट्टारक श्री कुन्द बुन्दाचार्यान्विये । भट्टारक श्री पद्मनन्दीदेवातत्पट्टे भट्टारक श्री सुभचन्द्र देवा तत्पट्टे भट्टारक श्री जिनचन्द्र देवातत्य भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत् सिप्य मंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देवा । मेरी सास्त्रकल्याण व्रतं निमित्ते प्रज्जिका विनय श्री जो दत्तं । ज्ञानवान्यादानेन । निर्भयो । अभट्टानतः अंवदानात सुपीनित्यं निव्वाधीनेपजाद्भवेत् ॥ छ||
छन्द संख्या और रचनाकाल :
कवि ने एक दोहे में ग्रन्थ का रचनाकाल और छन्दों की संख्या इस प्रकार दिया है :
'तेतीसह छह छडिया विरचित सत्रावीस |
बारह गुणिया तिरिस हुआ दोहा चवीस ||६||
अर्थात् १७२० में विरचित ३३६ ( तैंतीस के साथ छः ) छन्दों को यदि १२४३० (तिष्णिसय त्रिशत: = ३६० ) में छोड़ दिया जाय या निकाल दिया जाय, तो २४ दोहे शेष रह जाएंगे अर्थात् ३६० में जिस संख्या को निकाल देने से २४ संख्या शेष रह जाती है, कवि ने उतने ही छन्दों में यह काव्य लिखा । यह संख्या ३३६ होती है। 'दोहापाहुड' की प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में छन्द संख्या ३३५ ही है, जिनमें दो श्लोक और शेप ३३३ दोहा छन्द हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लिपिकारों के द्वारा एक दोहा भूल से छोड़ दिया गया है। मुझे प्राप्त प्रति में तो दूसरा श्लोक भी अधूरा है । 'नमोस्त्वनन्ताय जिनेश्वरराय' के बाद दोहा संख्या ३ प्रारम्भ हो गया है। दोहापाहुड़ के एक अन्य दोहे से भी ज्ञात होता है कि दोहों की संख्या ३३४ है । दोहे का अंश इस प्रकार है :―
'चउतीस गल्ल तिथि सय विरचित दोहावेल्लि ||५||
अर्थात् ३३४ दोहों की रचना की। इनमें दो श्लोक मिला देने से कुल छन्द संख्या ३३६ हो जाती है।
कवि ने रचना काल १७२० दिया है । यह विक्रम सम्वत् नहीं हो सकता, क्योंकि वि० सं० १५९१ और १६०२ की तो इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ ही उपलब्ध हैं । अतएव यह वीर निर्वाण सम्वत् प्रतीत होता है । कवि ने वीर निर्वाण सम्वत् १७२० ग्रर्थात् विक्रम सम्वत् १२५० में यह काव्य लिखा । काव्य की भाषा भी १३वीं शती की ही प्रतीत होती है । १८वीं शताब्दी में इस प्रकार के अपभ्रंश के प्रचलन का कोई प्रमाण नहीं मिलता। उस समय तो जैन कवि भी हिन्दी में काव्य रचना कर रहे थे ।
ग्रंथकर्ता का परिचय :
ग्रंथ के अनेक दोहों में कर्ता के रूप में 'महयंदिण' मुनि का नाम श्राया है | लेकिन इनका कोई विशेष परिचय नहीं प्राप्त होता । उन्होंने इतना ही