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तृतीय अध्याय
नामक कवि ने ४३६ पदों में 'अध्यात्म वारहखडी' की रचना की थी और उसो समय की सूरत कवि द्वारा लिम्वी एक 'जैन वारहवड़ी भी मिलती है।
महयंदिण मुनि ने अंत में ग्रंथ के महत्व और उसके पढ़ने का फल बताने के बाद, यह कहा है कि 'दोहापाहई समाप्त:
'जो पढ़इ पढ़ावइ संभलइ, देविगुदविलिहावइ । मयंदु भणई सो नित्त लउ, अक्खइ सोक्ख परावइ ॥३३५।
॥ इति दोहापाहुडं समाप्तं ।। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ का नाम 'दोहापाहड़' है और बारहखड़ी' उसका काव्य रूप है। विषय :
मुनि रामसिंह के दोहापाहड़ के ही समान इम ग्रन्थ का विपय भी अध्यात्मवाद है। लेकिन जिस ढंग से मूनि रामसिंह ने प्रात्मा परमात्मा के मधुर सम्बन्ध का वर्णन किया है अथवा बाह्याचार और पापंड का उपहास किया है अथवा शिव-शक्ति के मिलन या समरसता की दशा का उल्लेख किया है, वह शैली महयं दिण मुनि में नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त बारहखड़ी' का कवि जैन धर्म की मान्यताओं से अधिक दबा हुआ प्रतीत होता है। अनेक दोहों में तो उसने सामान्य ढंग से केवल जिनेश्वर की वन्दना या अहिंसा का उपदेश मात्र दिया है। लेकिन पुरे ग्रन्थ के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि कवि पर मुनि रामसिंह की रहस्यवादी भावना का प्रभाव है। उसने भी अन्य रहस्यवादी कवियों के समान ब्रह्म की स्थिति घट में स्वीकार की है. गुरु को विशेष महत्व दिया है, माया के त्याग पर बल दिया है, बाह्याचार की अपेक्षा चित्त शुद्धि और इन्द्रिय नियन्त्रण पर जोर दिया है और पाप पुण्य दोनों को बन्धन का हेतु माना है। उसका कहना है कि जिस प्रकार दुध में घी होता है, तिल में तेल होता है और काठ में अग्नि होती है, उसी प्रकार परमात्मा का वास शरीर में ही है। यह परमात्मा रूप, गन्ध, रस, सर्श, शब्द, लिंग और गुण आदि से रहित है। उसका न कोई प्राकार है, न गुण। गौरवर्ण या कृष्ण वर्ण, दुर्बलता अथवा सबलता तो शरीर के धर्म हैं। आत्मा सभी विकारों से रहित और अशरीरी है। ऐसे ब्रह्म की प्राप्ति किसी बाह्याचार से नहीं हो
१. अगर वन्द नाहटा- राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज,
(चतुर्थ भाग) पृ०६५। २. खीरह मझहं म घिउ, 'तरह मंझ जिम लिनु ।
कहिऊ वासणु जिम वमइ, तिमि देहि देहिल्लु । २३ । रूप गन्ध रत फंसडा, सद्द लिंग गुण हणु। अलइसी देहडिय सउ, घिउ जिम वीरड ल'णु ।। २७ ।। गौरउ कालउ दुब्बल उ, बलियउ एउ सरु अप्पा पुणु कलिमल रहिउ, गुणचन्त उ श्रमरी ।। ४० ।।