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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
संत आनंदघन कभी तो 'अवधू' को पुकारकर उसे यह समझाना चाहते हैं कि जो 'ब्रह्म' को जान लेता है, वही परम महारस का स्वाद जान पाता है । ( इसे ही सिद्धों ने सहज सुख या महासुख की संज्ञा दी है. ) आनंदघन का ब्रह्म जाति, वर्ण, लिंग, रूप आदि से रहित है, इसे भी वे स्पष्ट कर देते हैं ।' उनको ब्रह्म के स्वरूप के स्पष्टीकरण की आवश्यकता इसलिए भी पड़ी थी कि उन्होंने देखा था कि सारा जग 'राम राम' तो कहता है, लेकिन विरले पुरुष ही 'अलख' को लख पाते हैं। विभिन्न मतवाले तो सिद्धान्तों में उलझे हुए हैं और मठवाले मठ में ही अनुरक्त हैं । जटाधर और पटाधर ( सिंहासनवाले) भी तत्व को नहीं जान रहे हैं । 'आगम के अनुयायी आगम ही पढ़ते रह गए हैं और सांसारिक लोग तो माया के दास बने ही बैठे हैं । इस प्रकार जितना संसार है, वह बहिरात्मा में ही फँसा हुआ है । घट के अंतर में स्थित परमात्मा को जाननेवाला कोई दुर्लभ प्राणी ही है । इसीलिए तो उन्होंने कहा कि जो खग के चरण चिह्नों को आकाश में या मीन -पद- चिह्न जल में खोजने की चेष्टा करते हैं, वे पागल हैं । चित्त में स्थित पंकज (ब्रह्म) को जो भौंरा बन जान ले, वही सच्चा साधक है ।
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१. अवधू नाम हमारा राखे, सोई परम महारस चाखे ।
बाप न धोटा ।
ना हम पुरुष नहीं हम नारी, बरन न भांति हमारी । जाति न पांति न साधन साधक, ना हम लघु नहिं भारी । ना हम ताते ना हम सीरे, ना हम दीर्घ न छोटा । ना हम भाई ना हम भगिनी, ना हम ना हम मनसा ना हम सबदा, ना हम तन की धरणी । ना हम मेख मेखघर नाहीं, ना हम करता करणी । ना हम दरसन ना हम परसन, रस न गंध कछु नाहीं । आनंदघन चेतनमय मूरति सेवक जन बलि जाहीं ॥२६॥
( आनंदघन बहोत्तरी, पृ० ३६६ )
२. अवधू राम राम जग गावै, विरला अलख लगावै | मतवाला तो मत में माता, मठवाला मठ राता । जटा जटाधर पटा पटाघर, छता छताधर ताता । श्रागम पढ़ि श्रागमघर थाके, मायाधारी छाके । दुनियादार दुनी से लागे, दासा सब आसा के | बहिरातम मूढ़ा जग जेता, माया के फंद रहेता । घट अंतर परमातम भावै, दुर्लभ प्राणी तेता । खग पद गगन मीन पद जल में, जो खोजै सो बौरा | चित पंकज खोजै सो चीन्हे, रमता श्रानंद भौरा ॥२७॥
( श्रानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३६८ )