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एकादश अध्याय
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या संसार की नश्वरता का वर्णन; बाह्याचार का खंडन किया है या माया का चित्रण । एक पद में तो ठीक कबीर के ही समान बहुकहते है कि 'भाई प्रवधू 1 जो योगी इस पद का अर्थ लगा ले, वह मेरा गुरु हो सकता है। एक वृक्ष बिना मूल के लगा हुआ है, उसमें बिना पुष्पों के फल लगे हुए हैं, उसमें न शाखा है और न पत्र, फिर भी गगन में अमृत फल लगा हुआ है। एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हुए हैं, एक गुरु हैं और दूसरा चेला बेला चुन-चुनकर गाने में लगा हुआ है, गुरु क्रीड़ा कर रहा है । गगन मंडल के मध्य में कूप है, जिसमें अमृत का बास है । इस अमृत का पान 'सगुरु' (गुरुमुख) ही कर सकता है। गगन मंडल में गाय ने बछड़े को जन्म दिया है, दूध पृथ्वी में जमाया गया है। इस दूध का मक्खन तो बिरले ही पाते हैं, क्योंकि पूरा संसार छाछ में हो भरम रहा है । बिना डंठल के पत्र है और बिना पत्ते के तूंचा (फल) । विना जिल्ह्वा के गुणगान हो रहा है। गानेवाले का न कोई रूप है, न रेखा के बिना उसका ज्ञान नहीं हो सकता । किन्तु जो उस मूत्ति को अपने घट के भीतर परख लेता है। वह परम पद को प्राप्त होता है, इस पद में दृष्टव्य यह है कि नाथ सिद्धों की ही भाषा का प्रयोग किया गया है। पद की प्रथम तीन पंक्तियों कबीर से बिल्कुल मिलती है (देखिए कबीर ग्रंथावली पद नं १६५, यहीं नहीं, कवि का यह कथन कि 'तरुवर एक पंछी दोउ बैठे, एक गुरू एक चेला' मुकोपनिषद् के उस रूपक की याद दिला देता है, जिसमें भोगों में प्रासक्त जीव और विषयों से उदासीन शुद्ध आत्मा में भेद का उल्लेख एक वृक्ष पर बैठे हुए दो पक्षियों द्वारा किया गया है ।
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१. अवधू सी जोगी गुरु मेरा इस पद का करे रे मेरा । तस्त्रर एक मूल चिन छापा, बिन फुले फल लागा | शाखा पत्र नहीं कछु उनकूं, अमृत गगनं लागा । तरुवर एक पंछी दोउ बैठे, एक गुरू एक चेला | चेले ने चुग चुण चुण खाया, गुरू निरंतर खेला | गगन मंडल के अध बिच कूवा, उहाँ है अमी का बासा | गुरा होवे सो भर भर पीवे, निगुरा जाये प्यासा । गगन मंडल में गांबियानी, धरती दूध जमाया | माखन था जो बिरला पाया, छार्से जगत भरमाया | थड़ बिनुं पत्र पत्र बिनुं तुंबा, बिन जीभ्या गुण गाया । गावनवाले का रूप न रेखा, सुगुरू मोहि बताया । आतम अनुभव विन नदि जाने, अंतर प्रपोति जगाये। घट अंतर रखे सोहि मूरति श्रानंदघन पद पावे ॥६७॥ ( आनंदघन बहोत्तरी, पृ० ४०३ )
२.तुलनीया सयुजा सखाया समानं वृक्षं प
तयोरन्यः पिप्पलं स्वा इत्यनश्नन्नन्यो श्रभिचाकशीति ॥ (२१)