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एकादश अध्याय
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ऐसा प्रतीत होता है कि संत आनंदघन 'अवधूत मत' से परिचित तो थे ही, उस साधना से कुछ प्रभावित भी थे। लेकिन प्रायः जब वे 'अवधू' को उपदेश देते हैं तो उनका तात्पर्य साधू' या 'संत' से ही होता है। एक पद में तो उन्होंने 'साधो और अवधू' शब्द का साथ ही में समान अर्थ के लिए प्रयोग किया है :
'साधो भाई ! समता रंग रमीजै, अवधु ममता संग न कीजै । संपति नाहिं, नाहिं ममता में, रमता राम समेटे। खाट पाट तजि लाख खटाऊ, अंत खाख में लेटे। .... ॥३०॥
(श्रानंदघन बहोचरी, पृ. ३७०) वह 'अवधू' को पुकार कर कभी तो यह बताते हैं कि 'नटगागर की बाजी बांभन काजी' दोनों नहीं जान पाते हैं और कभी अपने को 'सुहागन नारी' के रूप में चित्रित करते हैं। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि उनका 'अवधु' बहुत कुछ कबीर के 'अवधू' के ही समान है और 'साधो' के समान 'अवधू' भी मध्य कालीन संतों के लिए संबोधन सूचक शब्द बन गया था।
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१. पानंदघन वहोत्तरी-पद नं०५, पृ० ३५७ । २. आनंदघन बहोत्तरी-पद नं० २०, पृ० ३६५ ।