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एकादश अध्याय
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आनंदतिलक ने बाह्माचार का विरोध करते हुए कहा है कि जाप जपने और ता तपने से कर्मों का विनाश नहीं होता। आत्मा की जानकारी से ही सिद्धि सम्भव है और आत्म ज्ञान तथा सिद्धि सहज समाधि' से ही प्राप्त हो सकती है।' किन्तु जैसा कि बनारसीदास ने कहा है यह सहज समाधि सरल नहीं है। यह तो नेत्र और वाणी दोनों से अगम है। इसको तो साधक ही जान पाते हैं। इसका वर्णन सम्भव नहीं। जो सम्यक् ज्ञानी हैं, वही सहज समाधि के द्वारा परमात्मा के दर्शन करते हैं। पडितजन मति, श्रुति, अवधि आदि ज्ञान के विकल्पा को छोड़कर, जब निर्विकल्प सम्यवान को मन में धारण करते हैं, इन्द्रियजनित सुख दुःख से विमुख होकर परम रूप हो कर्म की निजरा करते हैं, पर अर्थात् पुद्गल की समस्त उपाधियों को त्याग कर आत्मा की आराधना करते हैं, तब वे परमात्म-स्वरूप हो जाते हैं। यही सहज समाधि है। बनारसीदास के इस कथन से स्पष्ट है कि जैन कवियों ने 'सहज' शब्द को अपने रंग में रंग लिया था। उनके 'सहज' में जन दर्शन की कतिपय विशेषताएं भी समाहित हो गई थीं। योगीन्दु मुनि ने इसी 'सहज समाधि' को परम समाधि' कहा है। उनका मत है कि जो परम समाधि रूपा महासरोवर में मज्जन करते हैं, उनके सभी भव-मल छूट जाते हैं और उनका आत्मा निर्मल भाव को प्राप्त होता है। उनके अनुसार रागादि समस्त विकल्पों का विनाश होना ही परम समाधि है:
जापु जपइ बहु तव तवई तो वि ण कम्म हणेई। एक समउ अप्पा मुणइ आणंदा चउ गइ पाणि उ देई । २१॥ सो अप्पा मुणि जीव हुँ अणहकरि पारहार।। सहज समाधिहिं जाणियई आणंदा जे जिण सामणि सारु । २२।।
(आशंदा) नैनन ते अगम अगम याही बैनन ते,
उलट पुलट बहे कालकूट कहरी। मूल बिन पाए मूद कैसे जोग साधि श्रावे, सहज समाधि की अगम गति गहरी ॥३४॥
(बनारसी विलास, पृ.८४)... पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि,
दुंदज अवस्था की अनेकता हरतु है। मति अति अवधि इत्यादि विकलप मेंटि,
निरविकलप ग्यान मन में धरतु है॥ इन्द्रियजनित सुख दुख सौं विमुख है के,
परम के रूप है करम निर्जरतु है। सहज समाधि साधि त्यागि पर की उपाधि, बातम श्राराधि परमातम करतु है ॥१६॥
(बनारसीदास-नाटक समयसार, पृ.१८