________________
૨૪૬
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
परम समाहि महा-सरहिं जे बुडहिं पइसेव । अप्पा थक्कइ विमलु तहं भव-मल जति बहेवि ॥२-१८६|| सयल वियप्पहं जो विलउ परम समाहि भणंति ।। तेण सुहासुह भावडा मुणि सयल वि मेल्लंति ॥२-१६०॥
(परमात्मप्रकाश, पृ० ३२८) योगीन्दु मुनि निर्वाण प्राप्ति के लिए सहज स्वरूप में ही रमण करने का उपदेश देते हैं।' और मुनि रामसिंह सहज अवस्था की बात करते हैं (दो० नं० १७०) । रूपचन्द आत्म-सुख को सहज-सुख कहते हैं। उनका विश्वास है कि सहज-सुख के बिना मन की तृष्णा या पिपासा शान्त नहीं हो सकती। छीहल इसी कारण ब्रह्म को 'सहजानंद स्वरूप' मानते हैं – 'हउं सहजाणंद सरूव सिंधु ॥६॥'
संतों में सहज :
हम पहले ही कह आए हैं कि दसवीं शताब्दी से सहज का जोर बढ़ चला था और प्रत्येक साधना में इसको किसी न किसी रूप में स्थान मिलने लगा था। चौदहवीं-पंद्रहवीं शती तक आते आते यह शब्द और व्यापक हो गया। हिन्दी के संत कवियों ने भी इसको अपनाना शुरू कर दिया। कबीर के काव्य में सहज का प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में मिलता है। लेकिन कबीर तथा अन्य संतों का सहज, जैन कवियों के ही समान, सिद्धों का सहज नहीं है। कबीर तो शब्दचयन में काफो स्वच्छन्द थे। उन्हें उपयुक्त शब्द जहाँ से मिल गया है, उन्होंने ले लिया है। लेकिन जिस प्रकार उनके 'राम' वैष्णव ग्रन्थों से गृहीत होने पर भी 'दशरथ सुत' नहीं हैं, उसी प्रकार उनके सहज, रवि, शशि आदि सिद्धों से ग्रहीत होने पर भी, वही अर्थ-द्योतन नहीं करते हैं। वस्तुत: उन्होंने प्रत्येक शब्द की अपने ढंग से व्याख्या की है। उन्हें हर बात में 'सहज' का प्रयोग उपयुक्त भी नहीं लगता था। इसीलिए उन्होंने ऐसे साधकों और संतों को डाटा था, जो 'सहज' का नाम तो लेते थे, किन्तु उसके तत्ववाद से परिचित नहीं थे।
१.
२.
सहज सरूवइ जइ रमहि तो पावहि सिव सन्तु । ८७/
(योगसार, पृ० ३६०) चेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ । सहज सलिल बिन कहउ क्यउं उसन प्यास बुझाइ ||३०||
(दोहा परमार्थ) सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हें कोई। पाँचू राखै परसती, सहज कहीजै सोइ ॥ २ ॥ सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्है कोइ । जिन्ह सहजै हरि जी मिलै, सहज कहीजे सोइ ।। ४ ॥
(कबीर ग्रन्थावली, पृ०४२)