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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
'सहज' का लीला विलास हो रहा है। डाक्टर धर्मवीर भारती ने भी सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि नाथ सम्प्रदाय की बानियों में सहज का प्रयोग छः रूपों में मिलता है?
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१ - परम तत्व के रूप में ।
२- परम ज्ञान, परम स्वभाव के रूप में ।
३- देह के अन्दर य गिनी या शक्ति से संगम लाभ करने की योग पद्धति ।
४ - सहज समाधि |
५ - परम पद, परम सुख अथवा आनन्द के रूप में सहज । ६ - जोवन पद्धति के रूप में सहज ।
जैन कवियों में सहज :
जैन कवि भी सहज' के लोभ का संवरण नहीं कर सके हैं और विभिन्न रूपों में इसका प्रयोग किया है । यद्यपि यह कहना ठीक नहीं होगा कि उनको सहज की प्ररणा सहजयानियों से मिली या उनका सहज सिद्धों का सहज है । बहुत सम्भव है परवर्ती जन कवि जैसे आनन्दतिलक, बनारसीदास और रूपचन्द आदि सिद्धों के सहज से परिचित हुए हों और उन्हीं के प्रभाव में आकर सहज का प्रयोग किया हो, किन्तु योगीन्दु मुनि जो आठवीं शताब्दी के थे और सहजवाद के प्रवर्तक सरहपाद के समकालीन थे, सिद्धों से प्रभावित नहीं माने जा सकते। उन्होंने जिस 'सहज स्वरूप' और 'सहज समाधि' का वर्णन किया है, वह उनकी अपनी देन है। हाँ यह अवश्य सत्य है कि दसवीं शताब्दी और उसके पश्चात् सहज शब्द का काफी प्रचार बढ़ गया था । जिस प्रकार आज 'संस्कृति' शब्द का व्यापक रूप से प्रचार हुआ है, वसे हो मध्यकाल में 'सहज' का बड़ा जोर था। प्रत्येक साधना में इसका प्रयोग गौरवमय माना जाता था । इसीलिए जैन कवियों ने भी इस शब्द को खूब अपनाया । जैन काव्य में 'सहज' शब्द मुख्यतया तीन रूपों में प्रयुक्त हुआ है :
(१) सहज समाधि के रूप में । (२) सहज-सुख के रूप में । (३) परमतत्व के रूप में ।
१. मरणें का संसा नहीं । नहीं जीवन का आस ॥ सति भाषंति राजा भरथरी । हमरे सहजै लीला विलास ||१४||
२. सिद्ध साहित्य, पृ० १६८ ।
( नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० १०१ )