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एकादश अध्याय
सहज भाव से जान लेता है, उसके मार्ग के सभी अवरोध स्वतः भङ्ग हो जाते हैं ।' भुसुकपा इस 'सहज' महातरु के फलने पर ममता की बात करते हैं और कहना पाप-पुण्य के विभेद में समय न गंवा कर 'सहज' भाव की उपासना पर जोर देते है।
नाथ योगियों में सहज :
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डाक्टर गोविन्द त्रिगुणायत ने लिखा है कि 'नाथ पंथियों ने सहज शब्द का प्रयोग बहुत कम किया है। इसका कारण यह भी है कि वे सहज योग में विश्वास न करके हठयोग में विश्वास करते थे । जहाँ कहीं भी उन्होंने 'सहज' शब्द का प्रयोग किया है, वहाँ वह 'स्वाभाविक' का ही पर्यायवाची प्रतीत होता हैं' । डाक्टर त्रिगुणायत का उक्त मत सही नहीं प्रतीत होना । यद्यपि यह सत्य है कि नाथ योगियों की साधना हठयोग की साधना थी, तथापि वे सहज मत से काफी प्रभावित थे । कुछ विद्वानों ने तो नाथ सम्प्रदाय को सहजयानी सिद्धों की ही शाखा माना है । उनमें सहज शब्द का प्रयोग भी काफी मात्रा में और अनेक अर्थों के लिए हुआ है । यद्यपि नाथ सिद्धों का 'सहज' मनमानियों काही सहज नहीं है । उनके सहज के साथ 'शून्य' भी जुड़ गया है। नाथ योगी शून्य की अपेक्षा 'सहज शून्य' को श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि मात्र शून्य से आवागमन लगा रहता है, किन्तु जिस शून्य में चित्त समा कर स्थित हो जाता है, वह 'सहज शून्य' है । गोरखनाथ के प्रश्न करने पर मछीन्द्रनाथ कहते हैं :
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अवधू सुने वै सुने जाइ, सुंने चीया रहे समाइ । सहज सुंनि तन मन थिर रहै, ऐसा विचार मछिन्द्र कहै ॥
( गोरानी, प्र० १६५ )
करते हैं ।" सहज शून्य
गोरखनाथ इसी 'सहज शून्य' में रहने की भी बात के अतिरिक्त योगियों ने 'सहज' का प्रयोग 'परम तत्व' और सहज स्वभाव के लिए भी किया है । भरथरी जी को न मृत्यु की शंका है और न जीवन की आशा । वह जीवन मरण के ऊपर उठ चुके हैं, क्योंकि उनके अन्तर में
१. सहजें सहज वि बुज्झइ जवें । अन्तराल गई तुट्टा तन्वें ॥८२॥
( दोहाकोश, पृ० २० )
२. हिन्दी काव्यधारा, पृ० १३६ ।
३. हिन्दी काव्यधारा, पृ० १४६ ।
४. डाक्टर गोविन्द त्रिगुणायत - कबीर की विचारधारा, पृ० ४०५
५. इहाँ नहीं उहाँ नहीं त्रिकुटी मंझारी, सहज सुंनि में रहनि हमारी || ३ ||
( हिन्दी काव्यधारा, पृ० १५७ )