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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद आप ही अनुभवगम्य है, यद्यपि इसके लिए गुरु-चरणों की सेवा भी अपेक्षित होती है। सिद्धों में सहज :
'सहजयान' में यह शब्द काफी लोकप्रिय हो गया। सहजयानी सिद्धों ने इसका प्रयोग सहज समाधि, सहजज्ञान, सहज स्वभाव, सहज मार्ग, परम तत्व, परम पद, महासुख आदि के रूप में किया है। सरहपाद इस सहजवाद के प्राचार्य माने जा सकते हैं। उन्होंने सरल जीवन पर जोर दिया है। विभिन्न प्रकार की कठिन साधनाओं की अपेक्षा वह सहज रूप से ही परम तत्व की प्राप्ति का उपाय बताते हैं। उनकी दृष्टि में मन्त्र-तन्त्र और ध्यान-धारणा विभ्रम के कारण हैं। निर्मल चित्त ही योगी के लिए अलं है। चित्त के राग मुक्त हो जाने पर नाद-विन्दु, रवि-शशि आदि किसी की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी ऋजु मार्ग पर चलने के लिए वे सभी को प्रेरित करते हैं। इसी सहज साधना के लिए तिल्लोपाद कहते हैं कि सहज की साधना से चित्त को तू अच्छी तरह विशुद्ध कर ले। इससे इसी जीवन में तुझे सिद्धि और मोक्ष दोनों प्राप्त हो जायेंगे। यह सहज उनके लिए 'परम तत्व' भी है। इस तत्व की जानकारी शास्त्रादि पढ़ने से नहीं हो पाती। किन्तु जो इस सहज तत्व को जान लेता है, वह विषय विकल्प से मुक्त हो जाता है। सरह ने इसी को 'सहजामत रस' की संज्ञा दी है। वह पवन वेग से कम्पित नहीं होता, अग्नि उसको जला नहीं सकती, मेघ वर्षा से वह भीगता भी नहीं। वह न उत्पन्न होता है और न उसकी मृत्यु होती है। गुरु न उसका वर्णन कर सकता है और न शिष्य उसका श्रवण । वह अनिर्वचनीय है। इस सहज तत्व को जो
१. प्रेम पंचक, अद्वयवज्र संग्रह, पृ० ५८ (मध्यकालीन प्रेम साधना, पृ० ७६
से उद्धृत)। २. मन्त ण तन्त ण घेअ ण धारण |
सव्व वि रे बढ़। बिम्भम कारण ॥२३॥ (काव्यधारा, पृ०६) ३. नाद न विन्दु न रवि शशि मण्डल, चीपा राअ सहावे मूकल। उजु रे उजु छडि मा लेहु बंक, निअड़ि बोहि मा जाहु रे लंक ॥३२॥
(काव्यधारा, पृ० १८) ४. सहजें चित्त विसोहहु चंग। इह जम्महि सिद्धि मोक्ख भंग ॥२॥
(सन्त सुधा सार, पृ०६) ५. पवण वहन्ते णउ हल्लइ । जलण जलन्ते णउ सो डज्झइ ॥४॥ घण वरिसन्ते एउ तिम्मइ । ण उबजहि णउ ख अहि पइस्सह ॥५॥
णउ तं बाहि गुरु कहइ, एउ तं बुज्झइ सीस। सहजामिश्र रसु सअल जगु, कासु कहिजइ कीस ॥६॥
(काव्यधारा, पृ०२)